॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - अठारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
हिरण्याक्ष
के साथ वराहभगवान् का युद्ध
मैत्रेय
उवाच –
सोऽधिक्षिप्तो
भगवता प्रलब्धश्च रुषा भृशम् ।
आजहारोल्बणं
क्रोधं क्रीड्यमानोऽहिराडिव ॥ १३ ॥
सृजन्
अमर्षितः श्वासान् मन्युप्रचलितेन्द्रियः ।
आसाद्य
तरसा दैत्यो गदया न्यहनद् हरिम् ॥ १४ ॥
भगवान्
तु गदावेगं विसृष्टं रिपुणोरसि ।
अवञ्चयत्
तिरश्चीनो योगारूढ इवान्तकम् ॥ १५ ॥
पुनर्गदां
स्वां आदाय भ्रामयन्तं अभीक्ष्णशः ।
अभ्यधावद्
हरिः क्रुद्धः संरम्भाद् दष्टदच्छदम् ॥ १६ ॥
ततश्च
गदयारातिं दक्षिणस्यां भ्रुवि प्रभुः ।
आजघ्ने
स तु तां सौम्य गदया कोविदोऽहनत् ॥ १७ ॥
मैत्रेयजी
कहते हैं—विदुरजी ! जब भगवान्ने रोषसे उस दैत्यका इस प्रकार खूब उपहास और तिरस्कार
किया, तब वह पकडक़र खेलाये जाते हुए सर्पके समान क्रोधसे
तिलमिला उठा ॥ १३ ॥ वह खीझकर लंबी-लंबी साँसें लेने लगा, उसकी
इन्द्रियाँ क्रोधसे क्षुब्ध हो उठीं और उस दुष्ट दैत्यने बड़े वेगसे लपककर भगवान्पर
गदाका प्रहार किया ॥ १४ ॥ किन्तु भगवान्ने अपनी छातीपर चलायी हुई शत्रुकी गदाके
प्रहारको कुछ टेढ़े होकर बचा लिया—ठीक वैसे ही, जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्युके आक्रमणसे अपनेको बचा लेता है ॥ १५ ॥ फिर जब
वह क्रोधसे होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार-बार घुमाने लगा, तब
श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेगसे उसकी ओर झपटे ॥ १६ ॥ सौम्यस्वभाव विदुरजी ! तब
प्रभुने शत्रुकी दायीं भौंहपर गदाकी चोट की, किन्तु
गदायुद्धमें कुशल हिरण्याक्षने उसे बीचमें ही अपनी गदापर ले लिया ॥ १७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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