॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - अठारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
हिरण्याक्ष
के साथ वराहभगवान् का युद्ध
श्रीभगवानुवाच
–
सत्यं
वयं भो वनगोचरा मृगा
युष्मद्विधान्मृगये ग्रामसिंहान् ।
न
मृत्युपाशैः प्रतिमुक्तस्य वीरा
विकत्थनं तव गृह्णन्त्यभद्र ॥ १० ॥
एते
वयं न्यासहरा रसौकसां
गतह्रियो गदया द्रावितास्ते ।
तिष्ठामहेऽथापि
कथञ्चिदाजौ
स्थेयं क्व यामो बलिनोत्पाद्य वैरम् ॥ ११ ॥
त्वं
पद्-रथानां किल यूथपाधिपो
घटस्व नोऽस्वस्तय आश्वनूहः ।
संस्थाप्य
चास्मान् प्रमृजाश्रु स्वकानां
यः स्वां प्रतिज्ञां नातिपिपर्त्यसभ्यः ॥ १२
॥
श्रीभगवान्ने
कहा—अरे ! सचमुच ही हम जंगली जीव हैं, जो तुझ-जैसे
ग्राम-सिंहों (कुत्तों) को ढूँढ़ते फिरते हैं। दुष्ट ! वीर पुरुष तुझ-जैसे
मृत्यु-पाशमें बँधे हुए अभागे जीवों की आत्मश्लाघापर ध्यान नहीं देते ॥ १० ॥ हाँ,
हम रसातलवासियों की धरोहर चुराकर और लज्जा छोडक़र तेरी गदा के भयसे
यहाँ भाग आये हैं। हममें ऐसी सामर्थ्य ही कहाँ कि तेरे-जैसे अद्वितीय वीरके सामने
युद्धमें ठहर सकें। फिर भी हम जैसे-तैसे तेरे सामने खड़े हैं; तुझ-जैसे बलवानोंसे वैर बाँधकर हम जा भी कहाँ सकते हैं ? ॥ ११ ॥ तू पैदल वीरोंका सरदार है, इसलिये अब नि:शङ्क
होकर—उधेड़-बुन छोडक़र हमारा अनिष्ट करनेका प्रयत्न कर और
हमें मारकर अपने भाई-बन्धुओंके आँसू पोंछ। अब इसमें देर न कर। जो अपनी प्रतिज्ञाका
पालन नहीं करता, वह असभ्य है—भले
आदमियोंमें बैठनेलायक नहीं है ॥ १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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