॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - अठारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
हिरण्याक्ष
के साथ वराहभगवान् का युद्ध
ब्रह्मोवाच
–
एष
ते देव देवानां अङ्घ्रिमूलमुपेयुषाम् ।
विप्राणां
सौरभेयीणां भूतानां अपि अनागसाम् ॥ २२ ॥
आगस्कृद्
भयकृद् दुष्कृद् अस्मद् राद्धवरोऽसुरः ।
अन्वेषन्
अप्रतिरथो लोकान् अटति कण्टकः ॥ २३ ॥
मैनं
मायाविनं दृप्तं निरङ्कुशमसत्तमम् ।
आक्रीड
बालवद्देव यथाऽऽशीविषमुत्थितम् ॥ २४ ॥
न
यावदेष वर्धेत स्वां वेलां प्राप्य दारुणः ।
स्वां
देव मायां आस्थाय तावत् जह्यघमच्युत ॥ २५ ॥
श्रीब्रह्माजीने
कहा—देव ! मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है। इस समय यह आपके
चरणोंकी शरणमें रहनेवाले देवताओं, ब्राह्मणों, गौओं तथा अन्य निरपराध जीवोंको बहुत ही हानि पहुँचानेवाला, दु:खदायी और भयप्रद हो रहा है। इसकी जोडक़ा और कोई योद्धा नहीं है, इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करनेवाले वीरकी खोजमें समस्त लोकोंमें
घूम रहा है ॥ २२-२३ ॥ यह दुष्ट बड़ा ही मायावी, घमण्डी और
निरङ्कुश है। बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए साँपसे खेलता है; वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें ॥ २४ ॥ देव ! अच्युत ! जबतक यह दारुण दैत्य
अपनी बलवृद्धिकी वेलाको पाकर प्रबल हो, उससे पहले-पहले ही आप
अपनी योगमायाको स्वीकार करके इस पापीको मार डालिये ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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