॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - अठारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
हिरण्याक्ष
के साथ वराहभगवान् का युद्ध
एषा
घोरतमा सन्ध्या लोकच्छम्बट्करी प्रभो ।
उपसर्पति
सर्वात्मन् सुराणां जयमावह ॥ २६ ॥
अधुनैषोऽभिजिन्नाम
योगो मौहूर्तिको ह्यगात् ।
शिवाय
नस्त्वं सुहृदां आशु निस्तर दुस्तरम् ॥ २७ ॥
दिष्ट्या
त्वां विहितं मृत्युं अयं आसादितः स्वयम् ।
विक्रम्यैनं
मृधे हत्वा लोकान् आधेहि शर्मणि ॥ २८ ॥
(श्रीब्रह्माजी
कहते हैं) ‘प्रभो ! देखिये,
लोकों का संहार करनेवाली संन्ध्या की भयङ्कर वेला आना ही चाहती है।
सर्वात्मन् ! आप उससे पहले ही इस असुर को मारकर देवताओं को विजय प्रदान कीजिये ॥
२६ ॥ इस समय अभिजित् नामक मङ्गलमय मुहूर्त का भी योग आ गया है। अत: अपने सुहृद्
हमलोगों के कल्याण के लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्य से निपट लीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो
! इसकी मृत्यु आप के ही हाथ बदी है। हमलोगों के बड़े भाग्य हैं कि यह स्वयं ही
अपने कालरूप आपके पास आ पहुँचा है। अब आप युद्धमें बलपूर्वक इसे मारकर लोकों को
शान्ति प्रदान कीजिये॥२८॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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