॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सोलहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
जय-विजय
का वैकुण्ठ से पतन
ऋषय
ऊचुः –
न
वयं भगवन् विद्मः तव देव चिकीर्षितम् ।
कृतो
मेऽनुग्रहश्चेति यदध्यक्षः प्रभाषसे ॥ १६ ॥
ब्रह्मण्यस्य
परं दैवं ब्राह्मणाः किल ते प्रभो ।
विप्राणां
देवदेवानां भगवान् आत्मदैवतम् ॥ १७ ॥
त्वत्तः
सनातनो धर्मो रक्ष्यते तनुभिस्तव ।
धर्मस्य
परमो गुह्यो निर्विकारो भवान्मतः ॥ १८ ॥
तरन्ति
ह्यञ्जसा मृत्युं निवृत्ता यदनुग्रहात् ।
योगिनः
स भवान् किंस्विद् अनुगृह्येत यत्परैः ॥ १९ ॥
मुनियोंने
कहा—स्वप्रकाश भगवन् ! आप सर्वेश्वर होकर भी जो यह कह रहे हैं कि ‘यह आपने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया’ सो इससे आपका क्या
अभिप्राय है—यह हम नहीं जान सके हैं ॥ १६ ॥ प्रभो ! आप
ब्राह्मणोंके परम हितकारी हैं; इससे लोक-शिक्षाके लिये आप
भले ही ऐसा मानें कि ब्राह्मण मेरे आराध्यदेव हैं। वस्तुत: तो ब्राह्मण तथा
देवताओंके भी देवता ब्रह्मादिके भी आप ही आत्मा और आराध्यदेव हैं ॥ १७ ॥ सनातनधर्म
आपसे ही उत्पन्न हुआ है, आपके अवतारोंद्वारा ही समय-समयपर
उसकी रक्षा होती है तथा निर्विकारस्वरूप आप ही धर्मके परम गुह्य रहस्य हैं—यह शास्त्रोंका मत है ॥ १८ ॥ आपकी कृपासे निवृत्तिपरायण योगिजन सहजमें ही
मृत्युरूप संसार-सागरसे पार हो जाते हैं; फिर भला, दूसरा कोई आपपर क्या कृपा कर सकता है ॥ १९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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