॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सोलहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
जय-विजय
का वैकुण्ठ से पतन
ब्रह्मोवाच
–
अथ
तस्योशतीं देवीं ऋषिकुल्यां सरस्वतीम् ।
नास्वाद्य
मन्युदष्टानां तेषां आत्माप्यतृप्यत ॥ १३ ॥
सतीं
व्यादाय शृण्वन्तो लघ्वीं गुर्वर्थगह्वराम् ।
विगाह्यागाधगम्भीरां
न विदुस्तच्चिकीर्षितम् ॥ १४ ॥
ते
योगमाययारब्ध पारमेष्ठ्यमहोदयम् ।
प्रोचुः
प्राञ्जलयो विप्राः प्रहृष्टाः क्षुभितत्वचः ॥ १५ ॥
श्रीब्रह्माजी
कहते हैं—देवताओ ! सनकादि मुनि क्रोधरूप सर्प से डसे हुए थे, तो
भी उनका चित्त अन्त:करणको प्रकाशित करनेवाली भगवान्की मन्त्रमयी सुमधुर वाणी
सुनते-सुनते तृप्त नहीं हुआ ॥ १३ ॥ भगवान्की उक्ति बड़ी ही मनोहर और थोड़े
अक्षरोंवाली थी; किन्तु वह इतनी अर्थपूर्ण, सारयुक्त, दुर्विज्ञेय और गम्भीर थी कि बहुत ध्यान
देकर सुनने और विचार करने पर भी वे यह न जान सके कि भगवान् क्या करना चाहते हैं ॥
१४ ॥ भगवान् की इस अद्भुत उदारता को देखकर वे बहुत आनन्दित हुए और उनका अङ्ग-अङ्ग
पुलकित हो गया। फिर योगमायाके प्रभावसे अपने परम ऐश्वर्यका प्रभाव प्रकट करनेवाले
प्रभुसे वे हाथ जोडक़र कहने लगे ॥ १५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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