॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सत्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
हिरण्यकशिपु
और हिरण्याक्ष का जन्म तथा
हिरण्याक्ष
की दिग्विजय
स
एवं उत्सिक्त मदेन विद्विषा
दृढं प्रलब्धो भगवान् अपां पतिः ।
रोषं
समुत्थं शमयन् स्वया धिया
व्यवोचदङ्गोपशमं गता वयम् ॥ २९ ॥
पश्यामि
नान्यं पुरुषात् पुरातनाद्
यः संयुगे त्वां रणमार्गकोविदम् ।
आराधयिष्यति
असुरर्षभेहि तं
मनस्विनो यं गृणते भवादृशाः ॥ ३० ॥
तं
वीरमारादभिपद्य विस्मयः
शयिष्यसे वीरशये श्वभिर्वृतः ।
यस्त्वद्विधानां
असतां प्रशान्तये
रूपाणि धत्ते सदनुग्रहेच्छया ॥ ३१ ॥
उस
मदोन्मत्त शत्रुके इस प्रकार बहुत उपहास करनेसे भगवान् वरुण को क्रोध तो बहुत आया, किन्तु अपने बुद्धिबल से वे उसे पी गये और बदले में उससे कहने लगे—‘भाई ! हमें तो अब युद्धादि का कोई चाव नहीं रह गया है ॥ २९ ॥ भगवान्
पुराणपुरुष के सिवा हमें और कोई ऐसा दीखता भी नहीं, जो
तुम-जैसे रणकुशल वीर को युद्ध में सन्तुष्ट कर सके। दैत्यराज ! तुम उन्हीं के पास
जाओ, वे ही तुम्हारी कामना पूरी करेंगे। तुम-जैसे वीर उन्हीं
का गुणगान किया करते हैं ॥ ३० ॥ वे बड़े वीर हैं। उनके पास पहुँचते ही तुम्हारी
सारी शेखी पूरी हो जायगी और तुम कुत्तोंसे घिरकर वीरशय्यापर शयन करोगे। वे
तुम-जैसे दुष्टोंको मारने और सत्पुरुषोंपर कृपा करनेके लिये अनेक प्रकारके रूप
धारण किया करते हैं’ ॥ ३१ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
No comments:
Post a Comment