Thursday, November 1, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

यस्यामृतामलयशःश्रवणावगाहः
     सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः ।
सोऽहं भवद्‍भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्तिः
     छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ॥ ६ ॥
यत्सेवया चरणपद्मपवित्ररेणुं
     सद्यः क्षताखिलमलं प्रतिलब्धशीलम् ।
न श्रीर्विरक्तमपि मां विजहाति यस्याः
     प्रेक्षालवार्थ इतरे नियमान् वहन्ति ॥ ७ ॥
नाहं तथाद्मि यजमानहविर्वितानेः
     च्योतद्‍घृतप्लुतमदन् हुतभुङ्‌‌मुखेन ।
यद्‍ब्राह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं
     तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः ॥ ८ ॥

(श्रीभगवान्‌ सनकादि मुनियों से कह रहे हैं) मेरी निर्मल सुयश-सुधा में गोता लगाने से चाण्डालपर्यन्त सारा जगत् तुरंत पवित्र हो जाता है, इसीलिये मैं विकुण्ठकहलाता हूँ। किन्तु यह पवित्र कीर्ति मुझे आपलोगों से ही प्राप्त हुई है। इसलिये जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, वह मेरी भुजा ही क्यों न होमैं उसे तुरन्त काट डालूँगा ॥ ६ ॥ आपलोगोंकी सेवा करनेसे ही मेरी चरण-रज को ऐसी पवित्रता प्राप्त हुई है कि वह सारे पापोंको तत्काल नष्ट कर देती है और मुझे ऐसा सुन्दर स्वभाव मिला है कि मेरे उदासीन रहनेपर भी लक्ष्मी जी मुझे एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़तींयद्यपि इन्हीं के लेशमात्र कृपाकटाक्ष के लिये अन्य ब्रह्मादि देवता नाना प्रकार के नियमों एवं व्रतों का पालन करते हैं ॥ ७ ॥ जो अपने सम्पूर्ण कर्मफल मुझे अर्पण कर सदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे निष्काम ब्राह्मण ग्रास-ग्रासपर तृप्त होते हुए घी से तर तरह-तरह के पकवानों का जब भोजन करते हैं, तब उनके मुखसे मैं जैसा तृप्त होता हूँ वैसा यज्ञमें अग्निरूप मुख से यजमान की दी हुई आहुतियोंको ग्रहण करके नहीं होता ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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