॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सोलहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
जय-विजय
का वैकुण्ठ से पतन
ब्रह्मोवाच
–
इति
तद्गृणतां तेषां मुनीनां योगधर्मिणाम् ।
प्रतिनन्द्य
जगादेदं विकुण्ठनिलयो विभुः ॥ १ ॥
श्रीभगवानुवाच
-
एतौ
तौ पार्षदौ मह्यं जयो विजय एव च ।
कदर्थीकृत्य
मां यद्वो बह्वक्रातामतिक्रमम् ॥ २ ॥
यस्त्वेतयोर्धृतो
दण्डो भवद्भिर्मामनुव्रतैः ।
स
एवानुमतोऽस्माभिः मुनयो देवहेलनात् ॥ ३ ॥
तद्वः
प्रसादयाम्यद्य ब्रह्म दैवं परं हि मे ।
तद्धीत्यात्मकृतं
मन्ये यत्स्वपुम्भिरसत्कृताः ॥ ४ ॥
यन्नामानि
च गृह्णाति लोको भृत्ये कृतागसि ।
सोऽसाधुवादस्तत्
कीर्तिं हन्ति त्वचमिवामयः ॥ ५ ॥
श्रीब्रह्माजीने
कहा—देवगण ! जब योगनिष्ठ सनकादि मुनियोंने इस प्रकार स्तुति की, तब वैकुण्ठ-निवास श्रीहरिने उनकी प्रशंसा करते हुए यह कहा ॥ १ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा—मुनिगण ! ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं। इन्होंने मेरी कुछ भी परवा न करके
आपका बहुत बड़ा अपराध किया है ॥ २ ॥ आपलोग भी मेरे अनुगत भक्त हैं; अत: इस प्रकार मेरी ही अवज्ञा करने के कारण आपने इन्हें जो दण्ड दिया है,
वह मुझे भी अभिमत है ॥ ३ ॥ ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं; मेरे अनुचरोंके द्वारा आपलोगोंका जो तिरस्कार हुआ है, उसे मैं अपना ही किया हुआ मानता हूँ। इसलिये मैं आपलोगों से प्रसन्नताकी
भिक्षा माँगता हूँ ॥ ४ ॥ सेवकों के अपराध करने पर संसार उनके स्वामी का ही नाम
लेता है। वह अपयश उसकी कीर्ति को इस प्रकार दूषित कर देता है, जैसे त्वचाको चर्मरोग ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
No comments:
Post a Comment