॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - उन्नीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
हिरण्याक्ष-वध
सूत
उवाच –
इति
कौषारवाख्यातां आश्रुत्य भगवत्कथाम् ।
क्षत्तानन्दं
परं लेभे महाभागवतो द्विज ॥ ३३ ॥
अन्येषां
पुण्यश्लोकानां उद्दामयशसां सताम् ।
उपश्रुत्य
भवेन्मोदः श्रीवत्साङ्कस्य किं पुनः ॥ ३४ ॥
यो
गजेन्द्रं झषग्रस्तं ध्यायन्तं चरणाम्बुजम् ।
क्रोशन्तीनां
करेणूनां कृच्छ्रतोऽमोचयद्द्रुतम् ॥ ३५ ॥
तं
सुखाराध्यमृजुभिः अनन्यशरणैर्नृभिः ।
कृतज्ञः
को न सेवेत दुराराध्यं असाधुभिः ॥ ३६ ॥
यो
वै हिरण्याक्षवधं महाद्भुतं
विक्रीडितं कारणसूकरात्मनः ।
श्रृणोति
गायत्यनुमोदतेऽञ्जसा
विमुच्यते ब्रह्मवधादपि द्विजाः ॥ ३७ ॥
एतन्
महापुण्यमलं पवित्रं
धन्यं यशस्यं पदमायुराशिषाम् ।
प्राणेन्द्रियाणां
युधि शौर्यवर्धनं
नारायणोऽन्ते गतिरङ्ग श्रृण्वताम् ॥ ३८ ॥
सूतजी
कहते हैं—शौनकजी ! मैत्रेयजीके मुखसे भगवान्की यह कथा सुनकर परम भागवत विदुरजीको
बड़ा आनन्द हुआ ॥ ३३ ॥ जब अन्य पवित्रकीर्ति और परम यशस्वी महापुरुषोंका चरित्र
सुननेसे ही बड़ा आनन्द होता है, तब श्रीवत्सधारी भगवान्की
ललित-ललाम लीलाओंकी तो बात ही क्या है ॥ ३४ ॥ जिस समय ग्राह के पकडऩे पर गजराज
प्रभु के चरणों का ध्यान करने लगे और उनकी हथिनियाँ दु:खसे चिग्घाडऩे लगीं,
उस समय जिन्होंने उन्हें तत्काल दु:ख से छुड़ाया और जो सब ओर से
निराश होकर अपनी शरणमें आये हुए सरलहृदय भक्तों से सहज में ही प्रसन्न हो जाते हैं,
किन्तु दुष्ट पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुराराध्य हैं—उनपर जल्दी प्रसन्न नहीं होते, उन प्रभुके उपकारोंको
जाननेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उनका सेवन न करेगा ? ॥ ३५-३६ ॥ शौनकादि ऋषियो ! पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये वराहरूप धारण
करनेवाले श्रीहरिकी इस हिरण्याक्ष-वध नामक परम अद्भुत लीलाको जो पुरुष सुनता,
गाता अथवा अनुमोदन करता है, वह
ब्रह्महत्या-जैसे घोर पापसे भी सहजमें ही छूट जाता है ॥ ३७ ॥ यह चरित्र अत्यन्त
पुण्यप्रद, परम पवित्र, धन और यशकी
प्राप्ति करानेवाला आयुवर्धक और कामनाओंकी पूर्ति करनेवाला तथा युद्धमें प्राण और
इन्द्रियोंकी शक्ति बढ़ानेवाला है। जो लोग इसे सुनते हैं, उन्हें
अन्तमें श्रीभगवान्का आश्रय प्राप्त होता है। ॥ ३८ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से