Tuesday, October 9, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

दिति का गर्भधारण

श्रीशुक उवाच ।
निशम्य कौषारविणोपवर्णितां
    हरेः कथां कारणसूकरात्मनः ।
पुनः स पप्रच्छ तमुद्यताञ्जलिः
    न चातितृप्तो विदुरो धृतव्रतः ॥ १ ॥

विदुर उवाच ।
तेनैव तु मुनिश्रेष्ठ हरिणा यज्ञमूर्तिना ।
आदिदैत्यो हिरण्याक्षो हत इत्यनुशुश्रुम ॥ २ ॥
तस्य चोद्धरतः क्षौणीं स्वदंष्ट्राग्रेण लीलया ।
दैत्यराजस्य च ब्रह्मन् कस्माद् हेतोरभून्मृधः ॥ ३ ॥

मैत्रेय उवाच ।
साधु वीर त्वया पृष्टं अवतारकथां हरेः ।
यत्त्वं पृच्छसि मर्त्यानां मृत्युपाशविशातनीम् ॥ ४ ॥
ययोत्तानपदः पुत्रो मुनिना गीतयार्भकः ।
मृत्योः कृत्वैव मूर्ध्न्यङ्‌घ्रिं आरुरोह हरेः पदम् ॥ ५ ॥
अथात्रापीतिहासोऽयं श्रुतो मे वर्णितः पुरा ।
ब्रह्मणा देवदेवेन देवानां अनुपृच्छताम् ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन् ! प्रयोजनवश सूकर बने श्रीहरि की कथा को मैत्रेयजी के मुखसे सुनकर भी भक्तिव्रतधारी विदुरजी को पूर्ण तृप्ति न हुई; अत: उन्होंने हाथ जोडक़र फिर पूछा ॥ १ ॥
विदुरजी ने कहामुनिवर ! हमने यह बात आप के मुखसे अभी सुनी है कि आदिदैत्य हिरण्याक्षको भगवान्‌ यज्ञमूर्तिने ही मारा था ॥ २ ॥ ब्रह्मन् ! जिस समय भगवान्‌ लीलासे ही अपनी दाढ़ों पर रखकर पृथ्वी को जलमें से निकाल रहे थे, उस समय उनसे दैत्यराज हिरण्याक्ष की मुठभेड़ किस कारण हुई ? ॥ ३ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहाविदुरजी ! तुम्हारा प्रश्र बड़ा ही सुन्दर है; क्योंकि तुम श्रीहरि की अवतारकथा के विषय में ही पूछ रहे हो, जो मनुष्योंके मृत्युपाश का छेदन करनेवाली है ॥ ४ ॥ देखो, उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव बालकपन में श्रीनारदजी की सुनायी हुई हरिकथा के प्रभाव से ही मृत्यु के सिरपर पैर रखकर भगवान्‌ के परमपदपर आरूढ़ हो गया था ॥ ५ ॥ पूर्वकाल में एक बार इसी वराह- भगवान्‌ और हिरण्याक्ष के युद्ध के विषय में देवताओं के प्रश्न करनेपर देवदेव श्रीब्रह्माजी ने उन्हें यह इतिहास सुनाया था और उसीके परम्परासे मैंने सुना है ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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