॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौदहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
दिति
का गर्भधारण
श्रीशुक
उवाच ।
निशम्य
कौषारविणोपवर्णितां
हरेः कथां कारणसूकरात्मनः ।
पुनः
स पप्रच्छ तमुद्यताञ्जलिः
न चातितृप्तो विदुरो धृतव्रतः ॥ १ ॥
विदुर
उवाच ।
तेनैव
तु मुनिश्रेष्ठ हरिणा यज्ञमूर्तिना ।
आदिदैत्यो
हिरण्याक्षो हत इत्यनुशुश्रुम ॥ २ ॥
तस्य
चोद्धरतः क्षौणीं स्वदंष्ट्राग्रेण लीलया ।
दैत्यराजस्य
च ब्रह्मन् कस्माद् हेतोरभून्मृधः ॥ ३ ॥
मैत्रेय
उवाच ।
साधु
वीर त्वया पृष्टं अवतारकथां हरेः ।
यत्त्वं
पृच्छसि मर्त्यानां मृत्युपाशविशातनीम् ॥ ४ ॥
ययोत्तानपदः
पुत्रो मुनिना गीतयार्भकः ।
मृत्योः
कृत्वैव मूर्ध्न्यङ्घ्रिं आरुरोह हरेः पदम् ॥ ५ ॥
अथात्रापीतिहासोऽयं
श्रुतो मे वर्णितः पुरा ।
ब्रह्मणा
देवदेवेन देवानां अनुपृच्छताम् ॥ ६ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—राजन् ! प्रयोजनवश सूकर बने श्रीहरि की कथा को मैत्रेयजी के मुखसे सुनकर
भी भक्तिव्रतधारी विदुरजी को पूर्ण तृप्ति न हुई; अत:
उन्होंने हाथ जोडक़र फिर पूछा ॥ १ ॥
विदुरजी
ने कहा—मुनिवर ! हमने यह बात आप के मुखसे अभी सुनी है कि आदिदैत्य हिरण्याक्षको
भगवान् यज्ञमूर्तिने ही मारा था ॥ २ ॥ ब्रह्मन् ! जिस समय भगवान् लीलासे ही अपनी
दाढ़ों पर रखकर पृथ्वी को जलमें से निकाल रहे थे, उस समय
उनसे दैत्यराज हिरण्याक्ष की मुठभेड़ किस कारण हुई ? ॥ ३ ॥
श्रीमैत्रेयजीने
कहा—विदुरजी ! तुम्हारा प्रश्र बड़ा ही सुन्दर है; क्योंकि
तुम श्रीहरि की अवतारकथा के विषय में ही पूछ रहे हो, जो
मनुष्योंके मृत्युपाश का छेदन करनेवाली है ॥ ४ ॥ देखो, उत्तानपाद
का पुत्र ध्रुव बालकपन में श्रीनारदजी की सुनायी हुई हरिकथा के प्रभाव से ही
मृत्यु के सिरपर पैर रखकर भगवान् के परमपदपर आरूढ़ हो गया था ॥ ५ ॥ पूर्वकाल में
एक बार इसी वराह- भगवान् और हिरण्याक्ष के युद्ध के विषय में देवताओं के प्रश्न
करनेपर देवदेव श्रीब्रह्माजी ने उन्हें यह इतिहास सुनाया था और उसीके परम्परासे
मैंने सुना है ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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