॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - बारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०९)
सृष्टिका
विस्तार
ततोऽपरामुपादाय
स सर्गाय मनो दधे ।
ऋषीणां
भूरिवीर्याणां अपि सर्गमविस्तृतम् ॥ ४९ ॥
ज्ञात्वा
तद्धृदये भूयः चिन्तयामास कौरव ।
अहो
अद्भुतमेतन्मे व्यापृतस्यापि नित्यदा ॥ ५० ॥
न
ह्येधन्ते प्रजा नूनं दैवमत्र विघातकम् ।
एवं
युक्तकृतस्तस्य दैवं चावेक्षतस्तदा ॥ ५१ ॥
कस्य
रूपमभूद् द्वेधा यत्कायमभिचक्षते ।
ताभ्यां
रूपविभागाभ्यां मिथुनं समपद्यत ॥ ५२ ॥
यस्तु
तत्र पुमान्सोऽभूत् मनुः स्वायम्भुवः स्वराट् ।
स्त्री
याऽऽसीच्छतरूपाख्या महिष्यस्य महात्मनः ॥ ५३ ॥
तदा
मिथुनधर्मेण प्रजा ह्येधाम्बभूविरे ।
स
चापि शतरूपायां पञ्चापत्यान्यजीजनत् ॥ ५४ ॥
प्रियव्रतोत्तानपादौ
तिस्रः कन्याश्च भारत ।
आकूतिर्देवहूतिश्च
प्रसूतिरिति सत्तम ॥ ५५ ॥
आकूतिं
रुचये प्रादात् कर्दमाय तु मध्यमाम् ।
दक्षायादात्प्रसूतिं
च यत आपूरितं जगत् ॥ ५६ ॥
(श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं) विदुरजी ! ब्रह्माजी ने पहला कामासक्त शरीर जिससे कुहरा बना था—छोडऩे के बाद दूसरा शरीर धारण करके विश्वविस्तार का विचार किया; वे देख चुके थे कि मरीचि आदि महान् शक्तिशाली ऋषियों से भी सृष्टिका
विस्तार अधिक नहीं हुआ, अत: वे मन-ही-मन पुन: चिन्ता करने लगे—‘अहो ! बड़ा आश्चर्य है, मेरे निरन्तर प्रयत्न करनेपर
भी प्रजाकी वृद्धि नहीं हो रही है। मालूम होता है इसमें दैव ही कुछ विघ्र डाल रहा
है।’ ‘जिस समय यथोचित क्रिया करनेवाले श्रीब्रह्माजी इस
प्रकार दैवके विषयमें विचार कर रहे थे उसी समय अकस्मात् उनके शरीरके दो भाग हो
गये। ‘क’ ब्रह्माजीका नाम है, उन्हींसे विभक्त होने के कारण शरीरको ‘काय’ कहते हैं। उन दोनों विभागोंसे एक स्त्री-पुरुषका जोड़ा प्रकट हुआ ॥ ४९—५२ ॥ उनमें जो पुरुष था वह सार्वभौम सम्राट् स्वायम्भुव मनु हुए और जो
स्त्री थी, वह उनकी महारानी शतरूपा हुर्ईं ॥ ५३ ॥ तबसे
मिथुनधर्म (स्त्री-पुरुष-सम्भोग) से प्रजाकी वृद्धि होने लगी। महाराज स्वायम्भुव
मनुने शतरूपासे पाँच सन्तानें उत्पन्न कीं ॥ ५४ ॥ साधुशिरोमणि विदुरजी ! उनमें
प्रियव्रत और उत्तानपाद—दो पुत्र थे तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति—तीन कन्याएँ थीं ॥ ५५ ॥ मनुजीने
आकूतिका विवाह रुचि प्रजापतिसे किया, मझली कन्या देवहूति
कर्दमजीको दी और प्रसूति दक्ष प्रजापतिको। इन तीनों कन्याओंकी सन्ततिसे सारा संसार
भर गया ॥ ५६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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