॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - बारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
सृष्टिका
विस्तार
मैत्रेय
उवाच ।
इति
ते वर्णितः क्षत्तः कालाख्यः परमात्मनः ।
महिमा
वेदगर्भोऽथ यथास्राक्षीन्निबोध मे ॥ १ ॥
ससर्जाग्रेऽन्धतामिस्रं
अथ तामिस्रमादिकृत् ।
महामोहं
च मोहं च तमश्चाज्ञानवृत्तयः ॥ २ ॥
दृष्ट्वा
पापीयसीं सृष्टिं नात्मानं बह्वमन्यत ।
भगवद्ध्यानपूतेन
मनसान्यां ततोऽसृजत् ॥ ३ ॥
सनकं
च सनन्दं च सनातनमथात्मभूः ।
सनत्कुमारं
च मुनीन् निष्क्रियान् ऊर्ध्वरेतसः ॥ ४ ॥
तान्
बभाषे स्वभूः पुत्रान् प्रजाः सृजत पुत्रकाः ।
तन्नैच्छन्
मोक्षधर्माणो वासुदेवपरायणाः ॥ ५ ॥
श्रीमैत्रेयजी
ने कहा—विदुर जी ! यहाँ तक मैंने आपको भगवान् की कालरूप महिमा सुनायी। अब जिस
प्रकार ब्रह्माजी ने जगत् की रचना की,
वह सुनिये ॥ १ ॥ सबसे पहले उन्होंने अज्ञान की पाँच वृत्तियाँ—तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह
(राग), तामिस्र (द्वेष) और अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) रचीं ॥ २
॥ किन्तु इस अत्यन्त पापमयी सृष्टि को देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। तब
उन्होंने अपने मन को भगवान् के ध्यान से पवित्र कर उससे दूसरी सृष्टि रची ॥ ३ ॥
इस बार ब्रह्मा जी ने सनक, सनन्दन, सनातन
और सनत्कुमार—ये चार निवृत्तिपरायण ऊर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न
किये ॥ ४ ॥ अपने इन पुत्रों से ब्रह्माजी ने कहा, ‘पुत्रो !
तुमलोग सृष्टि उत्पन्न करो।’ किन्तु वे जन्मसे ही मोक्षमार्ग
(निवृत्तिमार्ग)-का अनुसरण करनेवाले और भगवान् के ध्यान में तत्पर थे, इसलिये उन्होंने ऐसा करना नहीं चाहा ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

No comments:
Post a Comment