॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट०८)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
कालमायांशयोगेन
भगवद् वीक्षितं नभः ।
नभसोऽनुसृतं
स्पर्शं विकुर्वन् निर्ममेऽनिलम् ॥ ३२ ॥
अनिलोऽपि
विकुर्वाणो नभसोरुबलान्वितः ।
ससर्ज
रूपतन्मात्रं ज्योतिर्लोकस्य लोचनम् ॥ ३३ ॥
अनिलेन
अन्वितं ज्योतिः विकुर्वत् परवीक्षितम् ।
आधत्ताम्भो
रसमयं कालमायांशयोगतः ॥ ३४ ॥
ज्योतिषाम्भोऽनुसंसृष्टं
विकुर्वद् ब्रह्मवीक्षितम् ।
महीं
गन्धगुणां आधात् कालमायांशयोगतः ॥ ३५ ॥
भूतानां
नभआदीनां यद् यद् यद् भव्यावरावरम् ।
तेषां
परानुसंसर्गाद् यथा सङ्ख्यं गुणान् विदुः ॥ ३६ ॥
एते
देवाः कला विष्णोः कालमायांशलिङ्गिनः ।
नानात्वात्
स्वक्रियानीशाः प्रोचुः प्राञ्जलयो विभुम् ॥ ३७ ॥
(श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं) भगवान् की दृष्टि जब आकाशपर पड़ी, तब उससे फिर काल,
माया और चिदाभासके योगसे स्पर्शतन्मात्र
हुआ और उसके विकृत होनेपर उससे वायुकी उत्पत्ति हुई ॥ ३२ ॥ अत्यन्त बलवान् वायुने
आकाशके सहित विकृत होकर रूपतन्मात्रकी रचना की और उससे संसारका प्रकाशक तेज
उत्पन्न हुआ ॥ ३३ ॥ फिर परमात्माकी दृष्टि पडऩेपर वायुयुक्त तेजने काल, माया और चिदंशके योगसे विकृत होकर रसतन्मात्रके कार्य जलको उत्पन्न किया ॥
३४ ॥ तदनन्तर तेजसे युक्त जलने ब्रह्मका दृष्टिपात होनेपर काल, माया और चिदंशके योगसे गन्धगुणमयी पृथ्वीको उत्पन्न किया ॥ ३५ ॥ विदुरजी !
इन आकाशादि भूतोंमेंसे जो-जो भूत पीछे-पीछे उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमश: अपने पूर्व-पूर्व भूतोंके गुण भी अनुगत समझने चाहिये ॥ ३६ ॥
ये महत्तत्त्वादिके अभिमानी विकार, विक्षेप और
चेतनांशविशिष्ट देवगण श्रीभगवान्के ही अंश हैं। किन्तु पृथक्-पृथक् रहनेके कारण
जब वे विश्वरचनारूप अपने कार्यमें सफल नहीं हुए, तब हाथ
जोडक़र भगवान्से कहने लगे ॥ ३७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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