Monday, July 9, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१)

विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन

श्रीशुक उवाच –

द्वारि द्युनद्या ऋषभः कुरूणां
     मैत्रेयमासीनमगाधबोधम् ।
क्षत्तोपसृत्याच्युतभावसिद्धः
     पप्रच्छ सौशील्यगुणाभितृप्तः ॥ १ ॥

विदुर उवाच –

सुखाय कर्माणि करोति लोको
     न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा ।
विन्देत भूयस्तत एव दुःखं
     यदत्र युक्तं भगवान् वदेन्नः ॥ २ ॥
जनस्य कृष्णाद् विमुखस्य दैवाद्
     अधर्मशीलस्य सुदुःखितस्य ।
अनुग्रहायेह चरन्ति नूनं
     भूतानि भव्यानि जनार्दनस्य ॥ ३ ॥
तत्साधुवर्यादिश वर्त्म शं नः
     संराधितो भगवान् येन पुंसाम् ।
हृदि स्थितो यच्छति भक्तिपूते
     ज्ञानं सतत्त्वाधिगमं पुराणम् ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरमज्ञानी मैत्रेय मुनि (हरिद्वारक्षेत्र में) विराजमान थे। भगवद्भक्ति से शुद्ध हुए हृदयवाले विदुर जी उनके पास जा पहुँचे और उनके साधुस्वभाव से आप्यायित होकर उन्होंने पूछा ॥ १ ॥
विदुरजीने कहाभगवन् ! संसारमें सब लोग सुखके लिये कर्म करते हैं; परन्तु उनसे न तो उन्हें सुख ही मिलता है और न उनका दु:ख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दु:खकी वृद्धि ही होती है। अत: इस विषयमें क्या करना उचित है, यह आप मुझे कृपा करके बतलाइये ॥ २ ॥
जो लोग दुर्भाग्यवश भगवान्‌ श्रीकृष्णसे विमुख, अधर्मपरायण और अत्यन्त दुखी हैं, उनपर कृपा करनेके लिये ही आप-जैसे भाग्यशाली भगवद्भक्त संसारमें विचरा करते हैं ॥३॥ साधुशिरोमणे ! आप मुझे उस शान्तिप्रद साधनका उपदेश दीजिये, जिसके अनुसार आराधना करनेसे भगवान्‌ अपने भक्तोंके भक्तिपूत हृदयमें आकर विराजमान हो जाते हैं और अपने स्वरूपका अपरोक्ष अनुभव करानेवाला सनातन ज्ञान प्रदान करते हैं ॥ ४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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