॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०९)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
श्रीशुक
उवाच -
ब्रह्मशापापदेशेन
कालेनामोघवाञ्छितः ।
संहृत्य
स्वकुलं स्फीतं त्यक्ष्यन् देहमचिन्तयत् ॥ २९ ॥
अस्मात्
लोकादुपरते मयि ज्ञानं मदाश्रयम् ।
अर्हत्युद्धव
एवाद्धा सम्प्रत्यात्मवतां वरः ॥ ३० ॥
नोद्धवोऽण्वपि
मन्न्यूनो यद्गुणैर्नार्दितः प्रभुः ।
अतो
मद्वयुनं लोकं ग्राहयन् इह तिष्ठतु ॥ ३१ ॥
एवं
त्रिलोकगुरुणा सन्दिष्टः शब्दयोनिना ।
बदर्याश्रममासाद्य
हरिमीजे समाधिना ॥ ३२ ॥
श्रीशुकदेवजीने
कहा—जिनकी इच्छा कभी व्यर्थ नहीं होती, उन श्रीहरिने
ब्राह्मणोंके शापरूप कालके बहाने अपने कुलका संहार कर अपने श्रीविग्रहको त्यागते
समय विचार किया ॥ २९ ॥ ‘अब इस लोकसे मेरे चले जानेपर
संयमीशिरोमणि उद्धव ही मेरे ज्ञान को ग्रहण करनेके सच्चे अधिकारी हैं ॥ ३० ॥ उद्धव
मुझ से अणुमात्र भी कम नहीं हैं, क्योंकि वे आत्मजयी हैं,
विषयों से कभी विचलित नहीं हुए। अत: लोगों को मेरे ज्ञान की शिक्षा
देते हुए वे यहीं रहें’ ॥ ३१ ॥ वेदों के मूल कारण जगद्गुरु
श्रीकृष्ण के इस प्रकार आज्ञा देनेपर उद्धवजी बदरिकाश्रम में जाकर समाधि- योग द्वारा
श्रीहरि की आराधना करने लगे ॥ ३२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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