॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
भागवतके
दस लक्षण
आदित्सोः
अन्नपानानां आसन् कुक्ष्यन्न नाडयः ।
नद्यः
समुद्राश्च तयोः तुष्टिः पुष्टिः तदाश्रये ॥ २९ ॥
निदिध्यासोः
आत्ममायां हृदयं निरभिद्यत ।
ततो
मनः ततश्चंद्रः सङ्कल्पः काम एव च ॥ ३० ॥
त्वक्
चर्म मांस रुधिर मेदो मज्जास्थि धातवः ।
भूम्यप्तेजोमयाः
सप्त प्राणो व्योमाम्बु वायुभिः ॥ ३१ ॥
गुणात्मकान्
इंद्रियाणि भूतादि प्रभवा गुणाः ।
मनः
सर्व विकारात्मा बुद्धिर्विज्ञानरूपिणी ॥ ३२ ॥
एतद्
भगवतो रूपं स्थूलं ते व्याहृतं मया ।
मह्यादिभिश्च
आवरणैः अष्टभिः बहिरावृतम् ॥ ३३ ॥
अतः
परं सूक्ष्मतमं अव्यक्तं निर्विशेषणम् ।
अनादिमध्यनिधनं
नित्यं वाङ् मनसः परम् ॥ ३४ ॥
जब
विराट् पुरुषको अन्न-जल ग्रहण करनेकी इच्छा हुई, तब कोख,
आँतें और नाडिय़ाँ उत्पन्न हुर्ईं। साथ ही कुक्षिके देवता समुद्र,
नाडिय़ोंके देवता नदियाँ एवं तुष्टि और पुष्टि—ये
दोनों उनके आश्रित विषय उत्पन्न हुए ॥ २९ ॥ जब उन्होंने अपनी मायापर विचार करना
चाहा, तब हृदयकी उत्पत्ति हुई। उससे मनरूप इन्द्रिय और मनसे
उसका देवता चन्द्रमा तथा विषय कामना और सङ्कल्प प्रकट हुए ॥ ३० ॥ विराट् पुरुषके
शरीरमें पृथ्वी, जल और तेजसे सात धातुएँ प्रकट हुर्ईं—त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा और अस्थि।
इसी प्रकार आकाश, जल और वायुसे प्राणोंकी उत्पत्ति हुई ॥ ३१
॥ श्रोत्रादि सब इन्द्रियाँ शब्दादि विषयोंको ग्रहण करनेवाली हैं। वे विषय
अहंकारसे उत्पन्न हुए हैं। मन सब विकारोंका उत्पत्तिस्थान है और बुद्धि समस्त
पदार्थोंका बोध करानेवाली है ॥ ३२ ॥ मैंने भगवान्के इस स्थूलरूपका वर्णन तुम्हें
सुनाया है। यह बाहरकी ओरसे पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन आठ आवरणोंसे घिरा हुआ है ॥ ३३ ॥ इससे परे भगवान्का अत्यन्त सूक्ष्मरूप
है। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि,
मध्य और अन्तसे रहित एवं नित्य है। वाणी और मनकी वहाँतक पहुँच नहीं
है ॥ ३४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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