॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
भागवतके
दस लक्षण
गतिं
जिगीषतः पादौ रुरुहातेऽभिकामिकाम् ।
पद्भ्यां
यज्ञः स्वयं हव्यं कर्मभिः क्रियते नृभिः ॥ २५ ॥
निरभिद्यत
शिश्नो वै प्रजानन्द अमृतार्थिनः ।
उपस्थ
आसीत् कामानां प्रियं तद् उभयाश्रयम् ॥ २६ ॥
उत्सिसृक्षोः
धातुमलं निरभिद्यत वै गुदम् ।
ततः
पायुस्ततो मित्र उत्सर्ग उभयाश्रयः ॥ २७ ॥
आसिसृप्सोः
पुरः पुर्या नाभिद्वारं अपानतः ।
तत्र
अपानः ततो मृत्युः पृथक्त्वं उभयाश्रयम् ॥ २८ ॥
जब
उन्हें (विराट् पुरुष को) अभीष्ट स्थान पर
जाने की इच्छा हुई,
तब उनके शरीर में पैर उग आये। चरणोंके साथ ही चरण-इन्द्रियके
अधिष्ठातारूपमें वहाँ स्वयं यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु स्थित हो गये और उन्हींमें
चलनारूप कर्म प्रकट हुआ। मनुष्य इसी चरणेन्द्रियसे चलकर यज्ञ-सामग्री एकत्र करते
हैं ॥ २५ ॥ सन्तान, रति और स्वर्ग-भोगकी कामना होनेपर विराट्
पुरुषके शरीरमें लिङ्गकी उत्पत्ति हुई। उसमें उपस्थेन्द्रिय और प्रजापति देवता तथा
इन दोनोंके आश्रय रहनेवाले कामसुखका आविर्भाव हुआ ॥ २६ ॥ जब उन्हें मलत्यागकी
इच्छा हुई, तब गुदाद्वार प्रकट हुआ। तत्पश्चात् उसमें
पायु-इन्द्रिय और मित्र-देवता उत्पन्न हुए। इन्हीं दोनोंके द्वारा मलत्यागकी
क्रिया सम्पन्न होती है ॥ २७ ॥ अपानमार्ग-द्वारा
एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जानेकी इच्छा होनेपर नाभिद्वार प्रकट हुआ। उससे अपान और
मृत्यु देवता प्रकट हुए। इन दोनोंके आश्रयसे ही प्राण और अपानका बिछोह यानी मृत्यु
होती है ॥ २८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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