॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०७)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
श्रीशुक
उवाच -
इति
उद्धवाद् उपाकर्ण्य सुहृदां दुःसहं वधम् ।
ज्ञानेनाशमयत्
क्षत्ता शोकं उत्पतितं बुधः ॥ २३ ॥
स
तं महाभागवतं व्रजन्तं कौरवर्षभः ।
विश्रम्भाद्
अभ्यधत्तेदं मुख्यं कृष्णपरिग्रहे ॥ २४ ॥
विदुर
उवाच -
ज्ञानं
परं स्वात्मरहःप्रकाशं
यदाह योगेश्वर ईश्वरस्ते ।
वक्तुं
भवान्नोऽर्हति यद्धि विष्णोः
भृत्याः स्वभृत्यार्थकृतश्चरन्ति ॥ २५ ॥
उद्धव
उवाच ।
ननु
ते तत्त्वसंराध्य ऋषिः कौषारवोऽन्ति मे ।
साक्षाद्
भगवतादिष्टो मर्त्यलोकं जिहासता ॥ २६ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—इस प्रकार उद्धवजी के मुखसे अपने प्रिय बन्धुओं के विनाश का असह्य समाचार
सुनकर परम ज्ञानी विदुरजी को जो शोक उत्पन्न हुआ, उसे
उन्होंने ज्ञानद्वारा शान्त कर दिया ॥ २३ ॥ जब भगवान् श्रीकृष्ण के परिकरों में
प्रधान महाभागवत उद्धवजी बदरिकाश्रम की ओर जाने लगे, तब
कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने श्रद्धापूर्वक उनसे पूछा ॥ २४ ॥
विदुरजीने
कहा—उद्धवजी ! योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप के गूढ़ रहस्य को
प्रकट करनेवाला जो परमज्ञान आपसे कहा था, वह आप हमें भी
सुनाइये; क्योंकि भगवान् के सेवक तो अपने सेवकों का कार्य
सिद्ध करनेके लिये ही विचरा करते हैं ॥ २५ ॥
उद्धवजीने
कहा—उस तत्त्वज्ञान के लिये आपको मुनिवर मैत्रेयजी की सेवा करनी चाहिये। इस मर्त्यलोकको
छोड़ते समय मेरे सामने स्वयं भगवान्ने ही आपको उपदेश करने के लिये उन्हें आज्ञा
दी थी ॥ २६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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