॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट१०)
भागवतके
दस लक्षण
परिमाणं
च कालस्य कल्पलक्षण विग्रहम् ।
यथा
पुरस्ताद् व्याख्यास्ये पाद्मं कल्पमथो श्रृणु ॥ ४७ ॥
शौनक
उवाच ।
यदाह
नो भवान् सूत क्षत्ता भागवतोत्तमः ।
चचार
तीर्थानि भुवः त्यक्त्वा बंधून् सु-दुस्त्यजान् ॥ ४८ ॥
क्षत्तुः
कौशारवेः तस्य संवादोऽध्यात्मसंश्रितः ।
यद्वा
स भगवान् तस्मै पृष्टः तत्त्वं उवाच ह ॥ ४९ ॥
ब्रूहि
नः तद् इदं सौम्य विदुरस्य विचेष्टितम् ।
बन्धुत्याग
निमित्तं च यथैव आगतवान् पुनः ॥ ५० ॥
सूत
उवाच ।
राज्ञा
परीक्षिता पृष्टो यद् अवोचत् महामुनिः ।
तद्वोऽभिधास्ये
श्रृणुत राज्ञः प्रश्नानुसारतः ॥ ५१ ॥
(श्रीशुकदेवजी
कहरहे हैं) परीक्षित् ! कालका परिमाण, कल्प और उसके अन्तर्गत मन्वन्तरोंका वर्णन आगे चलकर करेंगे। अब तुम
पाद्मकल्पका वर्णन सावधान होकर सुनो ॥ ४७ ॥
शौनकजीने
पूछा—सूतजी ! आपने हम लोगों से कहा था कि भगवान् के परम भक्त विदुरजी ने अपने
अति दुस्त्यज कुटुम्बियों को भी छोडक़र पृथ्वीके विभिन्न तीर्थोंमें विचरण किया था
॥ ४८ ॥ उस यात्रामें मैत्रेय ऋषिके साथ अध्यात्मके सम्बन्धमें उनकी बातचीत कहाँ
हुई तथा मैत्रेयजीने उनके प्रश्न करनेपर किस तत्त्वका उपदेश किया ? ॥ ४९ ॥ सूतजी ! आपका स्वभाव बड़ा सौम्य है। आप विदुरजी का वह चरित्र हमें
सुनाइये। उन्होंने अपने भाई-बन्धुओं को क्यों छोड़ा और फिर उनके पास क्यों लौट आये
? ॥ ५० ॥
सूतजीने
कहा—शौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित्ने भी यही बात पूछी थी। उनके प्रश्रों के
उत्तरमें श्रीशुकदेव जी महाराज ने जो कुछ कहा था, वही मैं
आपलोगों से कहता हूँ। सावधान होकर सुनिये ॥ ५१ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे
दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
इति
द्वितीय स्कन्ध समाप्त
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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