॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- छठा
अध्याय..(पोस्ट०६)
विराट्स्वरूपकी
विभूतियोंका वर्णन
यदास्य
नाभ्यान्नलिनाद् अहं आसं महात्मनः ।
नाविंदं
यज्ञसम्भारान् पुरुषा अवयवात् ऋते ॥ २२ ॥
तेषु
यज्ञस्य पशवः सवनस्पतयः कुशाः ।
इदं
च देवयजनं कालश्चोरु गुणान्वितः ॥ २३ ॥
वस्तूनि
ओषधयः स्नेहा रस-लोह-मृदो जलम् ।
ऋचो
यजूंषि सामानि चातुर्होत्रं च सत्तम ॥ २४ ॥
नामधेयानि
मंत्राश्च दक्षिणाश्च व्रतानि च ।
देवतानुक्रमः
कल्पः सङ्कल्पः तन्त्रमेव च ॥ २५ ॥
गतयो
मतयश्चैव प्रायश्चित्तं समर्पणम् ।
पुरुषा
अवयवैः एते संभाराः संभृता मया ॥ २६ ॥
(ब्रह्माजी
कहरहे हैं) जिस समय इस विराट् पुरुषके नाभि-कमल से मेरा
जन्म हुआ,
उस समय इस पुरुषके अङ्गोंके अतिरिक्त मुझे और कोई भी यज्ञकी सामग्री
नहीं मिली ॥ २२ ॥ तब मैंने उनके अङ्गोंमें ही यज्ञके पशु, यूप
(स्तम्भ), कुश, यह यज्ञभूमि और यज्ञके
योग्य उत्तम कालकी कल्पना की ॥ २३ ॥ ऋषिश्रेष्ठ ! यज्ञके लिये आवश्यक पात्र आदि
वस्तुएँ, जौ, चावल, आदि ओषधियाँ, घृत आदि स्नेहपदार्थ, छ: रस, लोहा, मिट्टी, जल, ऋक्, यजु:, साम, चातुर्होत्र, यज्ञोंके
नाम, मन्त्र, दक्षिणा, व्रत, देवताओंके नाम, पद्धतिग्रन्थ,
सङ्कल्प, तन्त्र (अनुष्ठानकी रीति), गति, मति, श्रद्धा, प्रायश्चित्त और समर्पण—यह समस्त यज्ञ-सामग्री मैंने
विराट् पुरुषके अङ्गोंसे ही इकट्ठी की ॥ २४—२६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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