॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- छठा
अध्याय..(पोस्ट०५)
विराट्स्वरूपकी
विभूतियोंका वर्णन
पादास्त्रयो
बहिश्चासन् अप्रजानां य आश्रमाः ।
अन्तः
त्रिलोक्यास्त्वपरो गृहमेधोऽबृहद्व्रतः ॥ १९ ॥
सृती
विचक्रमे विश्वङ् साशनानशने उभे ।
यद्
अविद्या च विद्या च पुरुषस्तु उभयाश्रयः ॥ २० ॥
यस्माद्
अण्डं विराड् जज्ञे भूतेन्द्रिय गुणात्मकः ।
तद्
द्रव्यं अत्यगाद् विश्वं गोभिः सूर्य इवाऽतपन् ॥ २१ ॥
जन, तप और सत्य—इन तीनों लोकोंमें ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ एवं संन्यासी निवास करते हैं। दीर्घकालीन ब्रह्मचर्यसे रहित
गृहस्थ भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकके भीतर ही निवास करते
हैं ॥ १९ ॥ शास्त्रोंमें दो मार्ग बतलाये गये हैं—एक
अविद्यारूप कर्म-मार्ग, जो सकाम पुरुषोंके लिये है और दूसरा
उपासनारूप विद्याका मार्ग, जो निष्काम उपासकोंके लिये है।
मनुष्य दोनोंमेंसे किसी एकका आश्रय लेकर भोग प्राप्त करानेवाले दक्षिणमार्गसे अथवा
मोक्ष प्राप्त करानेवाले उत्तरमार्गसे यात्रा करता है; किन्तु
पुरुषोत्तम भगवान् दोनोंके आधारभूत हैं ॥ २० ॥ जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे सबको
प्रकाशित करते हुए भी सबसे अलग हैं, वैसे ही जिन परमात्मासे
इस अण्डकी और पञ्चभूत, एकादश इन्द्रिय एवं गुणमय विराट्की
उत्पत्ति हुई है—वे प्रभु भी इन समस्त वस्तुओंके अंदर और
उनके रूपमें रहते हुए भी उनसे सर्वथा अतीत हैं ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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