॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
भगवान्
के लीलावतारों की कथा
अस्मत्प्रसादसुमुखः
कलया कलेश ।
इक्ष्वाकुवंश अवतीर्य गुरोर्निदेशे ।
तिष्ठन्
वनं सदयितानुज आविवेश ।
यस्मिन् विरुध्य दशकन्धर आर्तिमार्च्छत् ॥ २३
॥
यस्मा
अदादुदधिरूढभयाङ्गवेपो ।
मार्गं सपद्यरिपुरं हरवद् दिधक्षोः ।
दूरे
सुहृन्मथितरोष सुशोणदृष्ट्या ।
तातप्यमानमकरोरगनक्रचक्रः ॥ २४ ॥
वक्षःस्थलस्पर्शरुग्णमहेन्द्रवाह
।
दन्तैर्विडम्बितककुब्जुष ऊढहासम् ।
सद्योऽसुभिः
सह विनेष्यति दारहर्तुः ।
विस्फूर्जितैर्धनुष उच्चरतोऽधि सैन्ये ॥ २५ ॥
मायापति
भगवान् हम पर अनुग्रह करनेके लिये अपनी कलाओं—भरत, शत्रुघ्र और लक्ष्मणके साथ श्रीरामके रूपसे इक्ष्वाकुके वंशमें अवतीर्ण
होते हैं। इस अवतारमें अपने पिताकी आज्ञाका पालन करनेके लिये अपनी पत्नी और भाईके
साथ वे वनमें निवास करते हैं। उसी समय उनसे विरोध करके रावण उनके हाथों मरता है ॥
२३ ॥ त्रिपुर विमानको जलानेके लिये उद्यत शङ्करके समान, जिस
समय भगवान् राम शत्रुकी नगरी लङ्काको भस्म करनेके लिये समुद्रतटपर पहुँचते हैं,
उस समय सीताके वियोगके कारण बढ़ी हुई क्रोधाग्निसे उनकी आँखें इतनी
लाल हो जाती हैं कि उनकी दृष्टिसे ही समुद्रके मगरमच्छ, साँप
और ग्राह आदि जीव जलने लगते हैं और भयसे थर-थर काँपता हुआ समुद्र झटपट उन्हें
मार्ग दे देता है ॥ २४ ॥ जब रावणकी कठोर छातीसे टकराकर इन्द्रके वाहन ऐरावतके दाँत
चूर-चूर होकर चारों ओर फैल गये थे, जिससे दिशाएँ सफेद हो गयी
थीं, तब दिग्विजयी रावण घमंडसे फूलकर हँसने लगा था। वही रावण
जब श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी सीताजीको चुराकर ले जाता है और लड़ाईके मैदानमें उनसे
लडऩेके लिये गर्वपूर्वक आता है, तब भगवान् श्रीरामके धनुषकी
टङ्कारसे ही उसका वह घमंड प्राणोंके साथ तत्क्षण विलीन हो जाता है ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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