॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०३)
ध्यान-विधि
और भगवान्के विराट्स्वरूपका वर्णन
किं
प्रमत्तस्य बहुभिः परोक्षैर्हायनैरिह ।
वरं
मुहूर्तं विदितं घटते श्रेयसे यतः ॥ १२ ॥
खट्वाङ्गो
नाम राजर्षिः ज्ञात्वेयत्तामिहायुषः ।
मुहूर्तात्
सर्वं उत्सृज्य गतवान् अभयं हरिम् ॥ १३ ॥
तवाप्येतर्हि
कौरव्य सप्ताहं जीवितावधिः ।
उपकल्पय
तत्सर्वं तावद् यद् सांपरायिकम् ॥ १४ ॥
अंतकाले
तु पुरुष आगते गतसाध्वसः ।
छिन्द्याद्
असङ्गशस्त्रेण स्पृहां देहेऽनु ये च तम् ॥ १५ ॥
गृहात्
प्रत्प्रव्रजितो धीरः पुण्यतीर्थजलाप्लुतः ।
शुचौ
विविक्त आसीनो विधिवत् कल्पितासने ॥ १६ ॥
अभ्यसेन्
मनसा शुद्धं त्रिवृद् ब्रह्माक्षरं परम् ।
मनो
यच्छेज्जितश्वासो ब्रह्मबीजं अविस्मरन् ॥ १७ ॥
नियच्छेद्
विषयेभ्योऽक्षान् मनसा बुद्धिसारथिः ।
मनः
कर्मभिराक्षिप्तं शुभार्थे धारयेत् धिया ॥ १८ ॥
तत्रैकावयवं
ध्यायेत् अव्युच्छिन्नेन चेतसा ।
मनो
निर्विषयं युक्त्वा ततः किञ्चन न स्मरेत् ।
पदं
तत्परमं विष्णोः मनो यत्र प्रसीदति ॥ १९ ॥
(श्रीशुकदेवजी
कहते हैं) अपने कल्याण- साधन की ओर से असावधान रहनेवाले पुरुषकी वर्षों लम्बी आयु
भी अनजानमें ही व्यर्थ बीत जाती है। उससे क्या लाभ ! सावधानीसे ज्ञानपूर्वक बितायी
हुई घड़ी,
दो घड़ी भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उसके द्वारा
अपने कल्याण की चेष्टा तो की जा सकती है ॥ १२ ॥ राजर्षि खट्वाङ्ग अपनी आयुकी
समाप्तिका समय जानकर दो घड़ीमें ही सब कुछ त्यागकर भगवान्के अभयपदको प्राप्त हो
गये ॥ १३ ॥ परीक्षित् ! अभी तो तुम्हारे जीवनकी अवधि सात दिनकी है। इस बीचमें ही
तुम अपने परम कल्याणके लिये जो कुछ करना चाहिये, सब कर लो ॥
१४ ॥ मृत्युका समय आनेपर मनुष्य घबराये नहीं। उसे चाहिये कि वह वैराग्यके शस्त्रसे
शरीर और उससे सम्बन्ध रखनेवालोंके प्रति ममताको काट डाले ॥ १५ ॥ धैर्यके साथ घरसे
निकलकर पवित्र तीर्थके जलमें स्नान करे और पवित्र तथा एकान्त स्थानमें विधिपूर्वक
आसन लगाकर बैठ जाय ॥ १६ ॥ तत्पश्चात् परम पवित्र ‘अ उ म्’
इन तीन मात्राओंसे युक्त प्रणवका मन-ही-मन जप करे। प्राणवायुको
वशमें करके मनका दमन करे और एक क्षणके लिये भी प्रणवको न भूले ॥ १७ ॥ बुद्धिकी
सहायतासे मनके द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे हटा ले। और कर्मकी वासनाओंसे
चञ्चल हुए मनको विचारके द्वारा रोककर भगवान्के मङ्गलमय रूपमें लगाये ॥ १८ ॥ स्थिर
चित्तसे भगवान्के श्रीविग्रहमेंसे किसी एक अङ्गका ध्यान करे। इस प्रकार एक-एक
अङ्गका ध्यान करते-करते विषय-वासनासे रहित मनको पूर्णरूपसे भगवान्में ऐसा तल्लीन
कर दे कि फिर और किसी विषयका चिन्तन ही न हो। वही भगवान् विष्णुका परमपद है,
जिसे प्राप्त करके मन भगवत्प्रेमरूप आनन्दसे भर जाता है ॥ १९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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