Monday, February 26, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

नानुद्वेष्टि कलिं सम्राट् सारङ्ग इव सारभुक् ।
कुशलान्याशु सिद्ध्यन्ति नेतराणि कृतानि यत् ॥ ७ ॥
किं नु बालेषु शूरेण कलिना धीरभीरुणा ।
अप्रमत्तः प्रमत्तेषु यो वृको नृषु वर्तते ॥ ८ ॥
उपवर्णितमेतद् वः पुण्यं पारीक्षितं मया ।
वासुदेव कथोपेतं आख्यानं यदपृच्छत ॥ ९ ॥
या याः कथा भगवतः कथनीयोरुकर्मणः ।
गुणकर्माश्रयाः पुम्भिः संसेव्यास्ता बुभूषुभिः ॥ १० ॥

ऋषय ऊचुः

सूत जीव समाः सौम्य शाश्वतीर्विशदं यशः ।
यस्त्वं शंससि कृष्णस्य मर्त्यानां अमृतं हि नः ॥ ११ ॥
कर्मण्यस्मिन् अनाश्वासे धूमधूम्रात्मनां भवान् ।
आपाययति गोविन्द पादपद्मासवं मधु ॥ १२ ॥
तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
भगवत् सङ्‌गिसंगस्य मर्त्यानां किमुताशिषः ॥ १३ ॥

भ्रमरके समान सारग्राही सम्राट् परीक्षित्‌ कलियुगसे कोई द्वेष नहीं रखते थे; क्योंकि इसमें यह एक बहुत बड़ा गुण है कि पुण्यकर्म तो सङ्कल्पमात्रसे ही फलीभूत हो जाते हैं, परन्तु पापकर्मका फल शरीरसे करनेपर ही मिलता है; सङ्कल्पमात्रसे नहीं ॥ ७ ॥ यह भेडिय़ेके समान बालकोंके प्रति शूरवीर और धीरवीर पुरुषोंके लिये बड़ा भीरु है। यह प्रमादी मनुष्योंको अपने वशमें करनेके लिये ही सदा सावधान रहता है ॥ ८ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोगोंको मैंने भगवान्‌की कथासे युक्त राजा परीक्षित्‌का पवित्र चरित्र सुनाया। आपलोगोंने यही पूछा था ॥ ९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण कीर्तन करनेयोग्य बहुत-सी लीलाएँ करते हैं। इसलिये उनके गुण और लीलाओंसे सम्बन्ध रखनेवाली जितनी भी कथाएँ हैं, कल्याणकामी पुरुषोंको उन सबका सेवन करना चाहिये ॥ १० ॥
ऋषियोंने कहासौम्यस्वभाव सूतजी ! आप युग युग जीयें; क्योंकि मृत्युके प्रवाहमें पड़े हुए हमलोगोंको आप भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अमृतमयी उज्ज्वल कीर्तिका श्रवण कराते हैं ॥ ११ ॥ यज्ञ करते-करते उसके धूएँसे हमलोगोंका शरीर धूमिल हो गया है। फिर भी इस कर्मका कोई विश्वास नहीं है। इधर आप तो वर्तमानमें ही भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रके चरण-कमलोंका मादक और मधुर मधु पिलाकर हमें तृप्त कर रहे हैं ॥ १२ ॥ भगवत्-प्रेमी भक्तोंके लवमात्रके सत्सङ्गसे स्वर्ग एवं मोक्षकी भी तुलना नहीं की जा सकती; फिर मनुष्योंके तुच्छ भोगोंकी तो बात ही क्या है ॥१३॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से



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