॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)
परीक्षित्
की दिग्विजय
तथा
धर्म और पृथ्वी का संवाद
धरण्युवाच
।
भवान्
हि वेद तत्सर्वं यन्मां धर्मानुपृच्छसि ।
चतुर्भिर्वर्तसे
येन पादैर्लोकसुखावहैः ॥२५॥
सत्यं
शौचं दया क्षान्तिस्त्यागः सन्तोष आर्जवम् ।
शमो
दमस्तपः साम्य तितिक्षोपरतिः श्रुतम् ॥२६॥
ज्ञानं
विरक्तिरैश्वर्यं शौर्यं तेजो बलं स्मृतिः ।
स्वातन्त्र्य
कौशलं कान्तिधैर्यं मार्दवमेव च ॥२७॥
प्रागल्भ्यं
प्रश्रयः शीलं सह ओजो बलं भगः ।
गाम्भीर्य
स्थैर्यमास्तिक्यं कीर्तिर्मानोऽनहंकृतिः ॥२८॥
एते
चान्ये च भगवन्नित्या यत्र महागुणाः ।
प्रार्थ्या
महत्वमिच्छद्भिर्न वियन्ति स्म कर्हिचित् ॥२९॥
तेनाहं
गुणपात्रेण श्रीनिवासेन साम्प्रतम् ।
शोचामि
रहितं लोकं पाप्मना कलिनेक्षितम् ॥३०॥
आत्मानं
चानुशोचामि भवन्तं चामरोत्तमम् ।
देवान्
पितृनृषीन् साधुन् सर्वान् वर्णास्तथाऽऽश्रमान् ॥३१॥
पृथ्वीने
कहा—धर्म ! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब स्वयं
जानते हो। जिन भगवान्के सहारे तुम सारे संसारको सुख पहुँचानेवाले अपने चारों
चरणोंसे युक्त थे, जिनमें सत्य, पवित्रता,
दया, क्षमा, त्याग,
सन्तोष, सरलता, शम,
दम, तप, समता, तितिक्षा, उपरति, शास्त्रविचार,
ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य,
वीरता, तेज, बल, स्मृति, स्वतन्त्रता, कौशल,
कान्ति, धैर्य, कोमलता,
निर्भीकता, विनय, शील,
साहस, उत्साह, बल,
सौभाग्य, गम्भीरता, स्थिरता,
आस्तिकता, कीर्ति, गौरव
और निरहंकारता—ये उनतालीस अप्राकृत गुण तथा महत्त्वाकांक्षी
पुरुषोंके द्वारा वाञ्छनीय (शरणागत- वत्सलता आदि) और भी बहुत-से महान् गुण उनकी
सेवा करनेके लिये नित्य-निरन्तर निवास करते हैं, एक क्षणके
लिये भी उनसे अलग नहीं होते—उन्हीं समस्त गुणोंके आश्रय,
सौन्दर्यधाम भगवान् श्रीकृष्णने इस समय इस लोकसे अपनी लीला संवरण
कर ली और यह संसार पापमय कलियुगकी कुदृष्टिका शिकार हो गया। यही देखकर मुझे बड़ा
शोक हो रहा है ॥ २५—३० ॥ अपने लिये, देवताओंमें
श्रेष्ठ तुम्हारे लिये, देवता, पितर,
ऋषि, साधु और समस्त वर्णों तथा आश्रमोंके
मनुष्योंके लिये मैं शोकग्रस्त हो रही हूँ ॥ ३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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