॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध- अठारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट ०६)
राजा
परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप
एकदा
धनुरुद्यम्य विचरन्मृगयां वने ।
मृगाननुगतः
श्रान्तः क्षुधितस्तृषितो भृशम् ॥ २४ ॥
जलाशयमचक्षाणः
प्रविवेश तमाश्रमम् ।
ददर्श
मुनिमासीनं शान्तं मीलितलोचनम् ॥ २५ ॥
प्रतिरुद्धेन्द्रियप्राण
मनोबुद्धिमुपारतम् ।
स्थानत्रयात्परं
प्राप्तं ब्रह्मभूतमविक्रियम् ॥ २६ ॥
विप्रकीर्णजटाच्छन्नं
रौरवेणाजिनेन च ।
विशुष्यत्तालुरुदकं
तथाभूतमयाचत ॥ २७ ॥
अलब्धतृणभूम्यादिः
असम्प्राप्तार्घ्यसूनृतः ।
अवज्ञातं
इवात्मानं मन्यमानश्चुकोप ह ॥ २८ ॥
अभूतपूर्वः
सहसा क्षुत्तृड्भ्यामर्दितात्मनः ।
ब्राह्मणं
प्रत्यभूद्ब्रह्मन् मत्सरो मन्युरेव च ॥ २९ ॥
स
तु ब्रह्मऋषेरंसे गतासुमुरगं रुषा ।
विनिर्गच्छन्
धनुष्कोट्या निधाय पुरमागत् ॥ ३० ॥
एष
किं निभृताशेष करणो मीलितेक्षणः ।
मृषा
समाधिराहोस्वित् किं नु स्यात् क्षत्रबन्धुभिः ॥ ३१ ॥
एक
दिन राजा परीक्षित् धनुष लेकर वनमें शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणोंके पीछे
दौड़ते- दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोरकी भूख और प्यास लगी ॥ २४ ॥ जब कहीं
उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पास के ही एक ऋषि के
आश्रम में घुस गये। उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्तभावसे एक मुनि
आसनपर बैठे हुए हैं ॥ २५ ॥ इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धिके निरुद्ध हो जानेसे वे संसारसे ऊपर उठ गये थे। जाग्रत्,
स्वप्न, सुषुप्ति—तीनों
अवस्थाओंसे रहित निर्विकार ब्रह्मरूप तुरीय पद में वे स्थित थे ॥ २६ ॥ उनका शरीर
बिखरी हुई जटाओंसे और कृष्ण मृगचर्मसे ढका हुआ था। राजा परीक्षित्ने ऐसी ही
अवस्थामें उनसे जल माँगा, क्योंकि प्याससे उनका गला सूखा जा
रहा था ॥ २७ ॥ जब राजाको वहाँ बैठनेके लिये तिनकेका आसन भी न मिला, किसीने उन्हें भूमिपर भी बैठनेको न कहा—अर्घ्य और
आदरभरी मीठी बातें तो कहाँ से मिलतीं— तब अपने को अपमानित-सा
मानकर वे क्रोध के वश हो गये ॥ २८ ॥
शौनक
जी ! वे (राजा परीक्षित्) भूख-प्यास से छटपटा रहे थे, इसलिये एकाएक उन्हें ब्राह्मण के प्रति ईर्ष्या और क्रोध हो आया। उनके
जीवन में इस प्रकार का यह पहला ही अवसर था ॥ २९ ॥ वहाँ से लौटते समय उन्होंने
क्रोधवश धनुष की नोक से एक मरा साँप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और अपनी
राजधानी में चले आये ॥ ३० ॥ उनके मनमें यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद
कर रखे हैं, सो क्या वास्तवमें इन्होंने अपनी सारी
इन्द्रियवृत्तियोंका निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओं से हमारा क्या प्रयोजन है,
यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधि का ढोंग रच रखा है ॥ ३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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