||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
दूसरा
अध्याय (पोस्ट.११)
भक्तिका
दु:ख दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग
इदं
भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
भक्तिज्ञानविरागाणां
स्थापनाय प्रकाशितम् ॥ ७१ ॥
वेदान्तवेदसुस्नाते
गीताया अपि कर्तरि ।
परितापवति
व्यासे मुह्यत्यज्ञानसागरे ॥ ७२ ॥
तदा
त्वया पुरा प्रोक्तं चतुःश्लोकसमन्वितम् ।
तदीयश्रवणात्
सद्यो निर्बाधो बादरायणः ॥ ७३ ॥
तत्र
ते विस्मयः केन यतः प्रश्नकरो भवान् ।
श्रीमद्भागवतं
श्राव्य शोकदुःखविनाशनम् ॥ ७४ ॥
नारद
उवाच –
यद्दर्शनं
च विनिहन्त्यशुभानि सद्यः
श्रेयस्तनोति
भवदुःखदवार्दितानाम् ।
निःशेषशेषमुखगीतकथैकपानाः
प्रेमप्रकाशकृतये
शरणं गतोऽस्मि ॥ ७५ ॥
भाग्योदयेन
बहुजन्मसमर्जितेन
सत्संगमं
च लभते पुरुषो यदा वै ।
अज्ञानहेतुकृतमोहमदान्धकार
नाशं
विधाय हि तदोदयते विवेकः ॥ ७६ ॥
(सनकादि
नारदजी से कह रहे हैं) यह भागवतपुराण वेदोंके समान है। श्रीव्यासदेवने इसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्यकी स्थापनाके लिये प्रकाशित किया है ॥ ७१ ॥ पूर्वकालमें
जिस समय वेद-वेदान्तके पारगामी और गीता की भी रचना करनेवाले भगवान् व्यासदेव
खिन्न होकर अज्ञानसमुद्र में गोते खा रहे थे, उस समय आपने ही
उन्हें चार श्लोकोंमें इसका उपदेश किया था। उसे सुनते ही उनकी सारी चिन्ता दूर हो
गयी थी ॥ ७२-७३ ॥ फिर इसमें आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है, जो
आप हमसे प्रश्र कर रहे हैं ? आपको उन्हें शोक और दु:खका
विनाश करनेवाला श्रीमद्भागवतपुराण ही सुनाना चाहिये ॥ ७४ ॥
नारदजीने
कहा—महानुभावो ! आपका दर्शन जीवके सम्पूर्ण पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है और
जो संसार-दु:खरूप दावानलसे तपे हुए हैं, उनपर शीघ्र ही
शान्तिकी वर्षा करता है। आप निरन्तर शेषजीके सहस्र मुखोंसे गाये हुए भगवत्कथामृतका
ही पान करते रहते हैं। मैं प्रेमलक्षणा भक्तिका प्रकाश करनेके उद्देश्यसे आपकी शरण
लेता हूँ ॥ ७५ ॥ जब अनेकों जन्मोंके संचित पुण्यपुञ्जका उदय होनेसे मनुष्यको
सत्सङ्ग मिलता है, तब वह उसके अज्ञानजनित मोह और मदरूप
अन्धकारका नाश करके विवेक उदय होता है ॥ ७६ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
इति
श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये
कुमारनारदसंवादो
नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से

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