॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध- उन्नीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट ०८)
परीक्षित्का
अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन
परीक्षिदुवाच
।
अहो
अद्य वयं ब्रह्मन् सत्सेव्याः क्षत्रबन्धवः ।
कृपयातिथिरूपेण
भवद्भिस्तीर्थकाः कृताः ॥ ३२ ॥
येषां
संस्मरणात् पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः ।
किं
पुनर्दर्शनस्पर्श पादशौचासनादिभिः ॥ ३३ ॥
सान्निध्यात्ते
महायोगिन् पातकानि महान्त्यपि ।
सद्यो
नश्यन्ति वै पुंसां विष्णोरिव सुरेतराः ॥ ३४ ॥
अपि
मे भगवान् प्रीतः कृष्णः पाण्डुसुतप्रियः ।
पैतृष्वसेयप्रीत्यर्थं
तद्गोत्रस्यात्तबान्धवः ॥ ३५ ॥
परीक्षित्ने
कहा—ब्रह्मस्वरूप भगवन् ! आज हम बड़भागी हुए; क्योंकि
अपराधी क्षत्रिय होनेपर भी हमें संत-समागम का अधिकारी समझा गया। आज कृपापूर्वक
अतिथिरूप से पधारकर आपने हमें तीर्थ के तुल्य पवित्र बना दिया ॥ ३२ ॥ आप-जैसे
महात्माओं के स्मरणमात्र से ही गृहस्थों के घर तत्काल पवित्र हो जाते हैं; फिर दर्शन, स्पर्श, पादप्रक्षालन
और आसन दानादि का सुअवसर मिलनेपर तो कहना ही क्या है ॥ ३३ ॥ महायोगिन् ! जैसे
भगवान् विष्णुके सामने दैत्यलोग नहीं ठहरते, वैसे ही आपकी
सन्निधिसे बड़े-बड़े पाप भी तुरंत नष्ट हो जाते हैं ॥ ३४ ॥ अवश्य ही पाण्डवोंके
सुहृद् भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर अत्यन्त प्रसन्न हैं; उन्होंने
अपने फुफेरे भाइयोंकी प्रसन्नताके लिये उन्हींके कुलमें उत्पन्न हुए मेरे साथ भी
अपनेपनका व्यवहार किया है ॥ ३५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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