॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
तथाहृतं
पशुवत्पाशबद्धं
अवाङ्मुखं कर्मजुगुप्सितेन ।
निरीक्ष्य
कृष्णापकृतं गुरोः सुतं
वामस्वभावा कृपया ननाम च ॥ ४२ ॥
उवाच
चासहन्त्यस्य बंधनानयनं सती ।
मुच्यतां
मुच्यतां एष ब्राह्मणो नितरां गुरुः ॥ ४३ ॥
सरहस्यो
धनुर्वेदः सविसर्गोपसंयमः ।
अस्त्रग्रामश्च
भवता शिक्षितो यदनुग्रहात् ॥ ४४ ॥
स
एष भगवान् द्रोणः प्रजारूपेण वर्तते ।
तस्यात्मनोऽर्धं
पत्न्याः ते नान्वगाद् वीरसूः कृपी ॥ ४५ ॥
तद्
धर्मज्ञ महाभाग भवद्भिः र्गौरवं कुलम् ।
वृजिनं
नार्हति प्राप्तुं पूज्यं वन्द्यमभीक्ष्णशः ॥ ४६ ॥
मा
रोदीदस्य जननी गौतमी पतिदेवता ।
यथाहं
मृतवत्साऽर्ता रोदिम्यश्रुमुखी मुहुः ॥ ४७ ॥
यैः
कोपितं ब्रह्मकुलं राजन्यैरजितात्मभिः ।
तत्
कुलं प्रदहत्याशु सानुबंधं शुचार्पितम् ॥ ४८ ॥
द्रौपदी
ने देखा कि अश्वत्थामा पशुकी तरह बाँधकर लाया गया है। निन्दित कर्म करनेके कारण
उसका मुख नीचेकी ओर झुका हुआ है। अपना अनिष्ट करनेवाले गुरुपुत्र अश्वत्थामाको इस
प्रकार अपमानित देखकर द्रौपदीका कोमल हृदय कृपासे भर आया और उसने अश्वत्थामा को
नमस्कार किया ॥ ४२ ॥ गुरुपुत्र का इस प्रकार बाँधकर लाया जाना सती द्रौपदी को सहन
नहीं हुआ। उसने कहा—‘छोड़ दो इन्हें, छोड़ दो। ये ब्राह्मण हैं, हमलोगों के अत्यन्त पूजनीय हैं ॥ ४३ ॥ जिनकी कृपासे आपने रहस्यके साथ सारे
धनुर्वेद और प्रयोग तथा उपसंहार के साथ सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त
किया है, वे आपके आचार्य द्रोण ही पुत्र के रूप में आपके
सामने खड़े हैं। उनकी अर्धाङ्गिनी कृपी अपने वीर पुत्रकी ममतासे ही अपने पतिका
अनुगमन नहीं कर सकीं, वे अभी जीवित हैं ॥ ४४-४५ ॥
महाभाग्यवान् आर्यपुत्र ! आप तो बड़े धर्मज्ञ हैं। जिस गुरुवंशकी नित्य पूजा और
वन्दना करनी चाहिये, उसीको व्यथा पहुँचाना आपके योग्य कार्य
नहीं है ॥ ४६ ॥ जैसे अपने बच्चोंके मर जानेसे मैं दुखी होकर रो रही हूँ और मेरी
आँखोंसे बार-बार आँसू निकल रहे हैं, वैसे ही इनकी माता
पतिव्रता गौतमी न रोयें ॥ ४७ ॥ जो उच्छृङ्खल राजा अपने कुकृत्यों से ब्राह्मणकुल को
कुपित कर देते हैं, वह कुपित ब्राह्मणकुल उन राजाओं को
सपरिवार शोकाग्रि में डालकर शीघ्र ही भस्म कर देता है’ ॥ ४८
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से

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