॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
सूत
उवाच ।
धर्म्यं
न्याय्यं सकरुणं निर्व्यलीकं समं महत् ।
राजा
धर्मसुतो राज्ञ्याः प्रत्यनंदद् वचो द्विजाः ॥ ४९ ॥
नकुलः
सहदेवश्च युयुधानो धनंजयः ।
भगवान्
देवकीपुत्रो ये चान्ये याश्च योषितः ॥ ५० ॥
तत्राहामर्षितो
भीमः तस्य श्रेयान् वधः स्मृतः ।
न
भर्तुर्नात्मनश्चार्थे योऽहन् सुप्तान् शिशून् वृथा ॥ ५१ ॥
निशम्य
भीमगदितं द्रौपद्याश्च चतुर्भुजः ।
आलोक्य
वदनं सख्युः इदमाह हसन्निव ॥ ५२ ॥
श्रीभगवानुवाच
।
ब्रह्मबंधुर्न
हन्तव्य आततायी वधार्हणः ।
मयैवोभयमाम्नातं
परिपाह्यनुशासनम् ॥ ५३ ॥
कुरु
प्रतिश्रुतं सत्यं यत्तत् सांत्वयता प्रियाम् ।
प्रियं
च भीमसेनस्य पाञ्चाल्या मह्यमेव च ॥ ५४ ॥
सूतजीने
कहा—
शौनकादि
ऋषियो ! द्रौपदीकी बात धर्म और न्याय के अनुकूल थी। उसमें कपट नहीं था, करुणा और समता थी। अतएव राजा युधिष्ठिरने रानीके इन हितभरे श्रेष्ठ
वचनोंका अभिनन्दन किया ॥ ४९ ॥ साथ ही नकुल, सहदेव, सात्यकि, अर्जुन, स्वयं भगवान्
श्रीकृष्ण और वहाँपर उपस्थित सभी नर-नारियोंने द्रौपदीकी बातका समर्थन किया ॥ ५० ॥
उस समय क्रोधित होकर भीमसेनने कहा, ‘जिसने सोते हुए बच्चोंको
न अपने लिये और न अपने स्वामीके लिये, बल्कि व्यर्थ ही मार
डाला, उसका तो वध ही उत्तम है’ ॥ ५१ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने द्रौपदी और भीमसेनकी बात सुनकर और अर्जुनकी ओर देखकर कुछ
हँसते हुए-से कहा— ॥ ५२ ॥
‘पतित ब्राह्मणका भी वध नहीं करना चाहिये और आततायीको मार ही डालना चाहिये’—शास्त्रोंमें मैंने ही ये दोनों बातें कही हैं। इसलिये मेरी दोनों
आज्ञाओंका पालन करो ॥ ५३ ॥ तुमने द्रौपदीको सान्त्वना देते समय जो प्रतिज्ञा की थी
उसे भी सत्य करो; साथ ही भीमसेन, द्रौपदी
और मुझे जो प्रिय हो, वह भी करो ॥ ५४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से

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