॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)
विदुरजी
के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका
वनमें जाना
युधिष्ठिर
उवाच ।
अपि
स्मरथ नो युष्मत् पक्षच्छायासमेधितान् ।
विपद्गणाद्
विषाग्न्यादेः मोचिता यत्समातृकाः ॥ ८ ॥
कया
वृत्त्या वर्तितं वः चरद्भिः क्षितिमण्डलम् ।
तीर्थानि
क्षेत्रमुख्यानि सेवितानीह भूतले ॥ ९ ॥
भवद्विधा
भागवताः तीर्थभूताः स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति
तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता ॥ १० ॥
अपि
नः सुहृदस्तात बान्धवाः कृष्णदेवताः ।
दृष्टाः
श्रुता वा यदवः स्वपुर्यां सुखमासते ॥ ११ ॥
इत्युक्तो
धर्मराजेन सर्वं तत् समवर्णयत् ।
यथानुभूतं
क्रमशो विना यदुकुलक्षयम् ॥ १२ ॥
नन्वप्रियं
दुर्विषहं नृणां स्वयमुपस्थितम् ।
नावेदयत्
सकरुणो दुःखितान् द्रष्टुमक्षमः ॥ १३ ॥
युधिष्ठिर
ने
(विदुरजी से) कहा—चाचाजी ! जैसे पक्षी अपने
अंडों को पंखों की छाया के नीचे रखकर उन्हें सेते और बढ़ाते हैं, वैसे ही आपने अत्यन्त वात्सल्य से अपने कर-कमलों की छत्रछाया में हमलोगों को
पाला-पोसा है। बार-बार आपने हमें और हमारी माता को विषदान और लाक्षागृहके दाह आदि
विपत्तियोंसे बचाया है। क्या आप कभी हमलोगोंकी भी याद करते रहे हैं ? ॥ ८ ॥ आपने पृथ्वीपर विचरण करते समय किस वृत्तिसे जीवन-निर्वाह किया ?
आपने पृथ्वीतलपर किन-किन तीर्थों और मुख्य क्षेत्रोंका सेवन किया ?
॥ ९ ॥ प्रभो ! आप-जैसे भगवान्के प्यारे भक्त स्वयं ही तीर्थस्वरूप
होते हैं। आपलोग अपने हृदयमें विराजमान भगवान् के द्वारा तीर्थोंको भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं ॥ १० ॥
चाचाजी ! आप तीर्थयात्रा करते हुए द्वारका भी अवश्य ही गये होंगे। वहाँ हमारे
सुहृद् एवं भाई-बन्धु यादवलोग, जिनके एकमात्र आराध्यदेव
श्रीकृष्ण हैं, अपनी नगरीमें सुखसे तो हैं न ? आपने यदि जाकर देखा नहीं होगा तो सुना तो अवश्य ही होगा ॥ ११ ॥ युधिष्ठिरके
इस प्रकार पूछनेपर विदुरजीने तीर्थों और यदुवंशियोंके सम्बन्धमें जो कुछ देखा,
सुना और अनुभव किया था, सब क्रमसे बतला दिया,
केवल यदुवंशके विनाश की बात नहीं कही ॥ १२ ॥ करुणहृदय विदुरजी
पाण्डवोंको दुखी नहीं देख सकते थे। इसलिये उन्होंने यह अप्रिय एवं असह्य घटना
पाण्डवोंको नहीं सुनायी; क्योंकि वह तो स्वयं ही प्रकट
होनेवाली थी ॥ १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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