॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)
विदुरजी
के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका
वनमें जाना
सूत
उवाच ।
विदुरस्तीर्थयात्रायां
मैत्रेयादात्मनो गतिम् ।
ज्ञात्वागाt
हास्तिनपुरं तयावाप्तविवित्सितः ॥ १ ॥
यावतः
कृतवान् प्रश्नान् क्षत्ता कौषारवाग्रतः ।
जातैकभक्तिः
गोविन्दे तेभ्यश्चोपरराम ह ॥ २ ॥
तं
बन्धुमागतं दृष्ट्वा धर्मपुत्रः सहानुजः ।
धृतराष्ट्रो
युयुत्सुश्च सूतः शारद्वतः पृथा ॥ ३ ॥
गान्धारी
द्रौपदी ब्रह्मन् सुभद्रा चोत्तरा कृपी ।
अन्याश्च
जामयः पाण्डोः ज्ञातयः ससुताः स्त्रियः ॥ ४ ॥
प्रत्युज्जग्मुः
प्रहर्षेण प्राणं तन्व इवागतम् ।
अभिसङ्गम्य
विधिवत् परिष्वङ्गाभिवादनैः ॥ ५ ॥
मुमुचुः
प्रेमबाष्पौघं विरहौत्कण्ठ्य कातराः ।
राजा
तमर्हयां चक्रे कृतासन परिग्रहम् ॥ ६ ॥
तं
भुक्तवन्तं विश्रान्तं आसीनं सुखमासने ।
प्रश्रयावनतो
राजा प्राह तेषां च श्रृण्वताम् ॥ ७ ॥
सूतजी
कहते हैं—विदुरजी तीर्थयात्रामें महर्षि मैत्रेयसे आत्माका ज्ञान प्राप्त करके
हस्तिनापुर लौट आये। उन्हें जो कुछ जाननेकी इच्छा थी, वह
पूर्ण हो गयी थी ॥ १ ॥ विदुरजीने मैत्रेय ऋषिसे जितने प्रश्र किये थे, उनका उत्तर सुननेके पहले ही श्रीकृष्णमें अनन्य भक्ति हो जानेके कारण वे
उत्तर सुननेसे उपराम हो गये ॥ २ ॥ शौनकजी ! अपने चाचा विदुरजीको आया देख धर्मराज
युधिष्ठिर, उनके चारों भाई, धृतराष्ट्र,
ययुत्सु, संजय, कृपाचार्य,
कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी,
सुभद्रा, उत्तरा, कृपी
तथा पाण्डव-परिवारके अन्य सभी नर-नारी और अपने पुत्रोंसहित दूसरी स्त्रियाँ—सब-के-सब बड़ी प्रसन्नतासे, मानो मृत शरीरमें प्राण
आ गया हो—ऐसा अनुभव करते हुए उनकी अगवानीके लिये सामने गये।
यथायोग्य आलिङ्गन और प्रणामादिके द्वारा सब उनसे मिले और विरहजनित उत्कण्ठासे कातर
होकर सबने प्रेमके आँसू बहाये। युधिष्ठिरने आसनपर बैठाकर उनका यथोचित सत्कार किया
॥ ३—६ ॥ जब वे भोजन एवं विश्राम करके सुखपूर्वक आसनपर बैठे
थे तब युधिष्ठिरने विनयसे झुककर सबके सामने ही उनसे कहा ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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