॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
तमापतन्तं
स विलक्ष्य दूरात्
कुमारहोद्विग्नमना रथेन ।
पराद्रवत्
प्राणपरीप्सुरुर्व्यां
यावद्गमं रुद्रभयाद् यथार्कः ॥ १८ ॥
यदाशरणमात्मानं
ऐक्षत श्रान्तवाजिनम् ।
अस्त्रं
ब्रह्मशिरो मेने आत्मत्राणं द्विजात्मजः ॥ १९ ॥
अथोपस्पृश्य
सलिलं सन्दधे तत्समाहितः ।
अजानन्
उपसंहारं प्राणकृच्छ्र उपस्थिते ॥ २० ॥
ततः
प्रादुष्कृतं तेजः प्रचण्डं सर्वतो दिशम् ।
प्राणापदमभिप्रेक्ष्य
विष्णुं जिष्णुरुवाच ह ॥ २१ ॥
(द्रौपदीके
सोते हुए ) बच्चोंकी हत्या से अश्वत्थामा का भी मन उद्विग्र हो गया था। जब उसने
दूर से ही देखा कि अर्जुन मेरी ओर झपटे हुए आ रहे हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये पृथ्वी पर जहाँतक भाग सकता था,
रुद्रसे भयभीत सूर्य [*] की भाँति भागता रहा ॥ १८ ॥ जब उसने देखा कि
मेरे रथके घोड़े थक गये हैं और मैं बिलकुल अकेला हूँ, तब
उसने अपने को बचाने का एकमात्र साधन ब्रह्मास्त्र ही समझा ॥ १९ ॥ यद्यपि उसे
ब्रह्मास्त्र को लौटाने की विधि मालूम न थी, फिर भी
प्राणसङ्कट देखकर उसने आचमन किया और ध्यानस्थ होकर ब्रह्मास्त्र का सन्धान किया ॥
२० ॥ उस अस्त्र से सब दिशाओं में एक बड़ा प्रचण्ड तेज फैल गया। अर्जुन ने देखा कि
अब तो मेरे प्राणोंपर ही आ बनी है, तब उन्होंने श्रीकृष्णसे
प्रार्थना की ॥ २१ ॥
......................................................
[*]शिवभक्त
विद्युन्माली दैत्यको जब सूर्यने हरा दिया, तब सूर्यपर क्रोधित
हो भगवान् रुद्र त्रिशूल हाथमें लेकर उनकी ओर दौड़े । उस समय सूर्य भागते-भागते
पृथ्वीपर काशीमें आकर गिरे, इसीसे वहाँ उनका ‘लोलार्क’ नाम पड़ा।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से

No comments:
Post a Comment