॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)
भगवत्कथा
और भगवद्भक्तिका माहात्म्य
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु
नित्यं भागवतसेवया ।
भगवति
उत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥ १८ ॥
तदा
रजस्तमोभावाः कामलोभादयश्च ये ।
चेत
एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति ॥ १९ ॥
एवं
प्रसन्नमनसो भगवद्भक्तियोगतः ।
भगवत्
तत्त्वविज्ञानं मुक्तसङ्गस्य जायते ॥ २० ॥
भिद्यते
हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते
चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥ २१ ॥
अतो
वै कवयो नित्यं भक्तिं परमया मुदा ।
वासुदेवे
भगवति कुर्वन्त्यात्मप्रसादनीम् ॥ २२ ॥
जब
श्रीमद्भागवत अथवा भगवद्भक्तोंके निरन्तर सेवनसे अशुभ वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं, तब पवित्र- कीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके प्रति स्थायी प्रेमकी प्राप्ति
होती है ॥ १८ ॥ तब रजोगुण और तमोगुणके भाव—काम और लोभादि
शान्त हो जाते हैं और चित्त इनसे रहित होकर सत्त्वगुणमें स्थित एवं निर्मल हो जाता
है ॥ १९ ॥ इस प्रकार भगवान्की प्रेममयी भक्तिसे जब संसारकी समस्त आसक्तियाँ मिट
जाती हैं, हृदय आनन्दसे भर जाता है, तब
भगवान्के तत्त्वका अनुभव अपने-आप हो जाता है ॥ २० ॥ हृदयमें आत्मस्वरूप भगवान्का
साक्षात्कार होते ही हृदयकी ग्रन्थि टूट जाती है, सारे
सन्देह मिट जाते हैं और कर्मबन्धन क्षीण हो जाता है ॥ २१ ॥ इसीसे बुद्धिमान् लोग
नित्य- निरन्तर बड़े आनन्दसे भगवान् श्रीकृष्णके प्रति प्रेम-भक्ति करते हैं,
जिससे आत्मप्रसादकी प्राप्ति होती है ॥ २२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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