॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)
भगवत्कथा और भगवद्भक्तिका माहात्म्य
यदनुध्यासिना युक्ता: कर्मग्रन्थिनिबन्धनम्
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छिन्दन्ति कोविदास्तस्य को न
कुर्यात् कथारतिम् ॥ १५ ॥
शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य
वासुदेवकथारुचिः ।
स्यान्महत्सेवया विप्राः
पुण्यतीर्थनिषेवणात् ॥ १६ ॥
शृण्वतां स्वकथां कृष्णः
पुण्यश्रवणकीर्तनः ।
हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति
सुहृत्सताम् ॥ १७ ॥
कर्मों की गाँठ बड़ी कड़ी है।
विचारवान् पुरुष भगवान्के चिन्तन की तलवार से उस गाँठको काट डालते हैं। तब भला, ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो
भगवान्की लीलाकथामें प्रेम न करे ॥ १५ ॥
शौनकादि ऋषियो ! पवित्र तीर्थोंका
सेवन करनेसे महत्सेवा, तदनन्तर श्रवणकी
इच्छा, फिर श्रद्धा, तत्पश्चात्
भगवत्-कथामें रुचि होती है ॥ १६ ॥ भगवान् श्रीकृष्णके यशका श्रवण और कीर्तन दोनों
पवित्र करनेवाले हैं। वे अपनी कथा सुननेवालोंके हृदयमें आकर स्थित हो जाते हैं और
उनकी अशुभ वासनाओंको नष्ट कर देते हैं; क्योंकि वे संतोंके
नित्यसुहृद् हैं ॥ १७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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