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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)
श्रीकृष्णका
द्वारका-गमन
न्यरुन्धन्
उद्गलत् बाष्पमौत्कण्ठ्यात् देवकीसुते ।
निर्यात्यगारात्
नोऽभद्रं इति स्यात् बान्धवस्त्रियः ॥ १४ ॥
मृदङ्गशङ्खभेर्यश्च
वीणापणव गोमुखाः ।
धुन्धुर्यानक
घण्टाद्या नेदुः दुन्दुभयस्तथा ॥ १५ ॥
प्रासादशिखरारूढाः
कुरुनार्यो दिदृक्षया ।
ववृषुः
कुसुमैः कृष्णं प्रेमव्रीडास्मितेक्षणाः ॥ १६ ॥
सितातपत्रं
जग्राह मुक्तादामविभूषितम् ।
रत्नदण्डं
गुडाकेशः प्रियः प्रियतमस्य ह ॥ १७ ॥
उद्धवः
सात्यकिश्चैव व्यजने परमाद्भुते ।
विकीर्यमाणः
कुसुमै रेजे मधुपतिः पथि ॥ १८ ॥
अश्रूयन्ताशिषः
सत्याः तत्र तत्र द्विजेरिताः ।
नानुरूपानुरूपाश्च
निर्गुणस्य गुणात्मनः ॥ १९ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण के घरसे चलते समय उनके बन्धुओंकी स्त्रियोंके नेत्र उत्कण्ठावश उमड़ते
हुए आँसुओंसे भर आये;
परन्तु इस भयसे कि कहीं यात्राके समय अशकुन न हो जाय, उन्होंने बड़ी कठिनाईसे उन्हें रोक लिया ॥ १४ ॥ भगवान्के प्रस्थानके समय
मृदङ्ग, शङ्ख, भेरी, वीणा, ढोल, नरसिंगे, धुन्धुरी, नगारे, घंटे और
दुन्दुभियाँ आदि बाजे बजने लगे ॥ १५ ॥ भगवान्के दर्शनकी लालसासे कुरुवंशकी
स्त्रियाँ अटारियोंपर चढ़ गयीं और प्रेम, लज्जा एवं मुसकानसे
युक्त चितवनसे भगवान्को देखती हुई उनपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं ॥ १६ ॥ उस समय
भगवान्के प्रिय सखा घुँघराले बालोंवाले अर्जुनने अपने प्रियतम श्रीकृष्णका वह
श्वेत छत्र, जिसमें मोतियोंकी झालर लटक रही थी और जिसका डंडा
रत्नोंका बना हुआ था, अपने हाथमें ले लिया ॥ १७ ॥ उद्धव और
सात्यकि बड़े विचित्र चँवर डुलाने लगे। मार्गमें भगवान् श्रीकृष्णपर चारों ओरसे
पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी। बड़ी ही मधुर झाँकी थी ॥ १८ ॥ जहाँ-तहाँ ब्राह्मणोंके
दिये हुए सत्य आशीर्वाद सुनायी पड़ रहे थे। वे सगुण भगवान्के तो अनुरूप ही थे;
क्योंकि उनमें सब कुछ है, परन्तु निर्गुणके
अनुरूप नहीं थे, क्योंकि उनमें कोई प्राकृत गुण नहीं है ॥ १९
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शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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