॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)
श्रीकृष्णका
द्वारका-गमन
अन्योन्यमासीत्
संजल्प उत्तमश्लोकचेतसाम् ।
कौरवेन्द्रपुरस्त्रीणां
सर्वश्रुतिमनोहरः ॥ २० ॥
स
वै किलायं पुरुषः पुरातनो
य एक आसीदविशेष आत्मनि ।
अग्रे
गुणेभ्यो जगदात्मनीश्वरे
निमीलितात्मन्निशि सुप्तशक्तिषु ॥ २१ ॥
स
एव भूयो निजवीर्यचोदितां
स्वजीवमायां प्रकृतिं सिसृक्षतीम् ।
अनामरूपात्मनि रूपनामनी
विधित्समानोऽनुससार शास्त्रकृत् ॥ २२ ॥
हस्तिनापुर
की कुलीन रमणियाँ,
जिनका चित्त भगवान् श्रीकृष्ण में रम गया था, आपस में ऐसी बातें कर रही थीं, जो सबके कान और मन को
आकृष्ट कर रही थीं ॥ २० ॥ वे आपस में कह रही थीं—‘सखियो ! ये
वे ही सनातन परम पुरुष हैं, जो प्रलयके समय भी अपने अद्वितीय
निर्विशेष स्वरूपमें स्थित रहते हैं। उस समय सृष्टिके मूल ये तीनों गुण भी नहीं
रहते। जगदात्मा ईश्वरमें जीव भी लीन हो जाते हैं और महत्तत्त्वादि समस्त शक्तियाँ
अपने कारण अव्यक्तमें सो जाती हैं ॥ २१ ॥ उन्होंने ही फिर अपने नाम-रूपरहित
स्वरूपमें नामरूपके निर्माणकी इच्छा की, तथा अपनी
काल-शक्तिसे प्रेरित प्रकृतिका, जो कि उनके अंशभूत जीवोंको
मोहित कर लेती है और सृष्टिकी रचनामें प्रवृत्त रहती है, अनुसरण
किया और व्यवहारके लिये वेदादि शास्त्रोंकी रचना की ॥ २२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
No comments:
Post a Comment