॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ११)
गर्भमें
परीक्षित्की रक्षा,
कुन्तीके द्वारा भगवान्की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक
अप्यद्य
नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो
जिहाससि स्वित् सुहृदोऽनुजीविनः ।
येषां
न चान्यत् भवतः पदाम्बुजात्
परायणं राजसु योजितांहसाम् ॥ ३७ ॥
के
वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पाण्डवाः ।
भवतोऽदर्शनं
यर्हि हृषीकाणां इव ईशितुः ॥ ३८ ॥
नेयं
शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर ।
त्वत्पदैः
अङ्किता भाति स्वलक्षणविलक्षितैः ॥ ३९ ॥
इमे
जनपदाः स्वृद्धाः सुपक्वौषधिवीरुधः ।
वनाद्रि
नदी उदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितैः ॥ ४० ॥
अथ
विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ते स्वकेषु मे ।
स्नेहपाशं
इमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णिषु ॥ ४१ ॥
(कुन्ती
श्रीकृष्ण से कह रही हैं) भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रभो ! क्या अब आप अपने आश्रित और
सम्बन्धी हमलोगोंको छोडक़र जाना चाहते हैं ? आप जानते हैं कि
आपके चरणकमलोंके अतिरिक्त हमें और किसीका सहारा नहीं है। पृथ्वीके राजाओं के तो हम
यों ही विरोधी हो गये हैं ॥ ३७ ॥ जैसे जीव के बिना इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती
हैं, वैसे ही आपके दर्शन बिना यदुवंशियोंके और हमारे पुत्र
पाण्डवों के नाम तथा रूपका अस्तित्व ही क्या रह जाता है ॥ ३८ ॥ गदाधर ! आपके
विलक्षण चरणचिह्नोंसे चिह्नित यह कुरुजाङ्गल-देशकी भूमि आज जैसी शोभायमान हो रही
है, वैसी आपके चले जानेके बाद न रहेगी ॥ ३९ ॥ आपकी दृष्टिके
प्रभावसे ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता-वृक्षोंसे समृद्ध हो रहा है। ये वन,
पर्वत, नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टिसे ही
वृद्धिको प्राप्त हो रहे हैं ॥ ४० ॥ आप विश्वके स्वामी हैं, विश्वके
आत्मा हैं और विश्वरूप हैं। यदुवंशियों और पाण्डवोंमें मेरी बड़ी ममता हो गयी है।
आप कृपा करके स्वजनोंके साथ जोड़े हुए इस स्नेहकी दृढ़ फाँसीको काट दीजिये ॥ ४१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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