॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट०९)
भगवान्के
अवतारोंका वर्णन
एतद्
रूपं भगवतो ह्यरूपस्य चिदात्मनः ।
मायागुणैर्विरचितं
महदादिभिरात्मनि ॥ ३० ॥
यथा
नभसि मेघौघो रेणुर्वा पार्थिवोऽनिले ।
एवं
द्रष्टरि दृश्यत्वं आरोपितं अबुद्धिभिः ॥ ३१ ॥
अतः
परं यदव्यक्तं अव्यूढगुणबृंहितम् ।
अदृष्टाश्रुतवस्तुत्वात्
स जीवो यत् पुनर्भवः ॥ ३२ ॥
यत्रेमे
सदसद् रूपे प्रतिषिद्धे स्वसंविदा ।
अविद्ययाऽऽत्मनि
कृते इति तद्ब्रह्मदर्शनम् ॥ ३३ ॥
प्राकृत
स्वरूपरहित चिन्मय भगवान्का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी मायाके महत्तत्त्वादि गुणोंसे भगवान्में ही कल्पित है ॥ ३० ॥
जैसे बादल वायुके आश्रय रहते हैं और धूसर- पना धूलमें होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलोंका आकाशमें और धूसरपनेका वायुमें आरोप
करते हैं—वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मामें स्थूल
दृश्यरूप जगत् का आरोप करते हैं ॥ ३१ ॥ इस स्थूल रूपसे परे भगवान्का एक सूक्ष्म
अव्यक्त रूप है—जो न तो स्थूलकी तरह आकारादि गुणोंवाला है और
न देखने, सुननेमें ही आ सकता है; वही
सूक्ष्म-शरीर है। आत्माका आरोप या प्रवेश होनेसे यही जीव कहलाता है और इसीका
बार-बार जन्म होता है ॥ ३२ ॥ उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्यासे ही
आत्मामें आरोपित है। जिस अवस्थामें आत्मस्वरूपके ज्ञानसे यह आरोप दूर हो जाता है,
उसी समय ब्रह्मका साक्षात्कार होता है ॥ ३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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