॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)
अश्वत्थामाद्वारा
द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके
द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
सूत
उवाच -
श्रुत्वा
भगवता प्रोक्तं फाल्गुनः परवीरहा ।
स्पृष्ट्वापस्तं
परिक्रम्य ब्राह्मं ब्राह्माय संदधे ॥ २९ ॥
संहत्य
अन्योन्यं उभयोः तेजसी शरसंवृते ।
आवृत्य
रोदसी खं च ववृधातेऽर्कवह्निवत् ॥ ३० ॥
दृष्ट्वास्त्रतेजस्तु
तयोः त्रिँल्लोकान् प्रदहन्महत् ।
दह्यमानाः
प्रजाः सर्वाः सांवर्तकममंसत ॥ ३१ ॥
प्रजोपप्लवमालक्ष्य
लोकव्यतिकरं च तम् ।
मतं
च वासुदेवस्य संजहारार्जुनो द्वयम् ॥ ३२ ॥
तत
आसाद्य तरसा दारुणं गौतमीसुतम् ।
बबंधामर्षताम्राक्षः
पशुं रशनया यथा ॥ ३३ ॥
शिबिराय
निनीषन्तं रज्ज्वा बद्ध्वा रिपुं बलात् ।
प्राहार्जुनं
प्रकुपितो भगवान् अंबुजेक्षणः ॥ ३४ ॥
मैनं
पार्थार्हसि त्रातुं ब्रह्मबंधुमिमं जहि ।
यो
असौ अनागसः सुप्तान् अवधीन्निशि बालकान् ॥ ३५ ॥
सूतजी
कहते हैं—अर्जुन विपक्षी वीरोंको मारनेमें बड़े प्रवीण थे। भगवान्की बात सुनकर
उन्होंने आचमन किया और भगवान्की परिक्रमा करके ब्रह्मास्त्रके निवारण के लिये
ब्रह्मास्त्रका ही सन्धान किया ॥ २९ ॥ बाणोंसे वेष्टित उन दोनों ब्रह्मास्त्रोंके
तेज प्रलयकालीन सूर्य एवं अग्रिके समान आपसमें टकराकर सारे आकाश और दिशाओंमें फैल
गये और बढऩे लगे ॥ ३० ॥ तीनों लोकोंको जलानेवाली उन दोनों अस्त्रोंकी बढ़ी हुई
लपटोंसे प्रजा जलने लगी और उसे देखकर सबने यही समझा कि यह प्रलयकालकी सांवर्तक
अग्नि है ॥ ३१ ॥ उस आगसे प्रजाका और लोकोंका नाश होते देखकर भगवान्की अनुमतिसे
अर्जुनने उन दोनोंको ही लौटा लिया ॥ ३२ ॥ अर्जुनकी आँखें क्रोधसे लाल-लाल हो रही
थीं। उन्होंने झपटकर उस क्रूर अश्वत्थामाको पकड़ लिया और जैसे कोई रस्सीसे पशुको
बाँध ले, वैसे ही बाँध लिया ॥ ३३ ॥ अश्वत्थामाको बलपूर्वक
बाँधकर अर्जुनने जब शिविरकी ओर ले जाना चाहा, तब उनसे कमलनयन
भगवान् श्रीकृष्णने कुपित होकर कहा— ॥ ३४ ॥ ‘अर्जुन ! इस ब्राह्मणाधमको छोडऩा ठीक नहीं है, इसको
तो मार ही डालो। इसने रात, में सोये हुए निरपराध बालकोंकी
हत्या की है ॥ ३५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से

No comments:
Post a Comment