||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
छठा अध्याय (पोस्ट.०३)
सप्ताहयज्ञ की विधि
तीर्थे
वापि वने वापि गृहे वा श्रवणं मतम् ।
विशाला
वसुधा यत्र कर्तव्यं तत्कथास्थलम् ॥ १२ ॥
शोधनं
मार्जनं भूमेः लेपनं धातुमण्डनम् ।
गृहोपस्करमुद्ध्रुत्य
गृहकोणे निवेशयेत् ॥ १३ ॥
अर्वाक्
पंचाहतो यत्नात् आस्तीर्णानि प्रमेलयेत् ।
कर्तव्यो
मण्डपः प्रोच्चैः कदलीखण्डमण्डितः ॥ १४ ॥
फलपुष्पदलैर्विष्वक्
वितानेन विराजितः ।
चतुर्दिक्षु
ध्वजारोपो बहुसम्पद्विराजितः ॥ १५ ॥
ऊर्ध्वं
सप्तैव लोकाश्च कल्पनीयाः सविस्तरम् ।
तेषु
विप्रा विरक्ताश्च स्थापनीयाः प्रबोध्य च ॥ १६ ॥
पूर्वं
तेषां आसनानि कर्तव्यानि यथोत्तरम् ।
वक्तुश्चापि
तदा दिव्यं आसनं परिकल्पयेत् ॥ १७ ॥
उदङ्मुखो
भवेद्वक्ता श्रोता वै प्राङ्मुखस्तदा ।
प्राङ्मुखश्चेत्
भवेद्वक्ता श्रोता च उदङ्मुखस्तदा ॥ १८ ॥
अथवा
पूर्वदिग्ज्ञेया पूज्यपूजकमध्यतः ।
श्रोतॄणां
आगमे प्रोक्ता देशकालादिकोविदैः ॥ १९ ॥
कथा का श्रवण किसी
तीर्थमें, वनमें अथवा अपने घरपर भी अच्छा माना गया है। जहाँ
लंबा- चौड़ा मैदान हो, वहीं कथास्थल रखना चाहिये ॥ १२ ॥
भूमिका शोधन, मार्जन और लेपन करके रंग-बिरंगी धातुओंसे चौक
पूरे। घरकी सारी सामग्री उठाकर एक कोनेमें रख दे ॥ १३ ॥ पाँच दिन पहलेसे ही
यत्नपूर्वक बहुत-से बिछानेके वस्त्र एकत्र कर ले तथा केलेके खंभोंसे सुशोभित एक
ऊँचा मण्डप तैयार कराये ॥ १४ ॥ उसे सब ओर फल, पुष्प, पत्र और चँदोवेसे अलंकृत करे तथा चारों ओर झंडियाँ लगाकर तरह-तरहके
सामानोंसे सजा दे ॥ १५ ॥ उस मण्डपमें कुछ ऊँचाईपर सात विशाल लोकोंकी कल्पना करे और
उनमें विरक्त ब्राह्मणोंको बुला-बुलाकर बैठाये ॥ १६ ॥ आगेकी ओर उनके लिये वहाँ
यथोचित आसन तैयार रखे। इनके पीछे वक्ताके लिये भी एक दिव्य सिंहासनका प्रबन्ध करे
॥ १७ ॥ यदि वक्ताका मुख उत्तरकी ओर रहे, तो श्रोता
पूर्वाभिमुख होकर बैठे और यदि वक्ता पूर्वाभिमुख रहे तो श्रोताको उत्तरकी ओर मुख
करके बैठना चाहिये ॥ १८ ॥ अथवा वक्ता और श्रोताको पूर्वमुख होकर बैठना चाहिये।
देश-काल आदिको जाननेवाले महानुभावोंने श्रोताके लिये ऐसा ही नियम बताया है ॥ १९ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित
श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535 से
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