||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा
अध्याय (पोस्ट.०४)
भक्तिके
कष्टकी निवृत्ति
तात
संसारचक्रेऽस्मिन् भ्रमतेऽज्ञानतः पुमान् ।
यावत्
कर्णगता नास्ति शुकशास्त्रकथा क्षणम् ॥ २७ ॥
किं
श्रुतैबहुभिः शास्त्रैः पुराणैश्च भ्रमावहैः ।
एकं
भागवतं शास्त्रं मुक्तिदानेन गर्जति ॥ २८ ॥
कथा
भागवतस्यापि नित्यं भवति यद्गृहे ।
तद्गृहं
तीर्थरूपं हि वसतां पापनाशनम् ॥ २९ ॥
अश्वमेधसहस्राणि
वाजपेयशतानि च ।
शुकशास्त्रकथायाश्च
कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३० ॥
तावत्
पापानि देहेस्मिन् निवसन्ति तपोधनाः ।
यावत्
न श्रूयते सम्यक् श्रीमद्भागवतं नरैः ॥ ३१ ॥
न
गंगा न गया काशी पुष्करं न प्रयागकम् ।
शुकशास्त्रकथायाश्च
फलेन समतां नयेत् ॥ ३२ ॥
यह
जीव तभीतक अज्ञानवश इस संसारचक्रमें भटकता है, जबतक क्षणभरके लिये
भी कानोंमें इस शुकशास्त्रकी कथा नहीं पड़ती ॥ २७ ॥ बहुत-से शास्त्र और पुराण
सुननेसे क्या लाभ है, इससे तो व्यर्थका भ्रम बढ़ता है।
मुक्ति देनेके लिये तो एकमात्र भागवतशास्त्र ही गरज रहा है ॥ २८ ॥ जिस घरमें
नित्यप्रति श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता
है और जो लोग उसमें रहते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते
हैं ॥ २९ ॥ हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ इस शुकशास्त्रकी कथाका सोलहवाँ
अंश भी नहीं हो सकते ॥ ३० ॥ तपोधनो ! जबतक लोग अच्छी तरह श्रीमद्भागवतका श्रवण
नहीं करते, तभीतक उनके शरीरमें पाप निवास करते हैं ॥ ३१ ॥
फलकी दृष्टिसे इस शुकशास्त्रकथाकी समता गङ्गा, गया, काशी, पुष्कर या प्रयाग—कोई
तीर्थ भी नहीं कर सकता ॥ ३२ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तक कोड
1535 से

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