Monday, December 11, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य तीसरा अध्याय (पोस्ट.०४)



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.०४)

भक्तिके कष्टकी निवृत्ति

तात संसारचक्रेऽस्मिन् भ्रमतेऽज्ञानतः पुमान् ।
यावत् कर्णगता नास्ति शुकशास्त्रकथा क्षणम् ॥ २७ ॥
किं श्रुतैबहुभिः शास्त्रैः पुराणैश्च भ्रमावहैः ।
एकं भागवतं शास्त्रं मुक्तिदानेन गर्जति ॥ २८ ॥
कथा भागवतस्यापि नित्यं भवति यद्‌गृहे ।
तद्‌गृहं तीर्थरूपं हि वसतां पापनाशनम् ॥ २९ ॥
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
शुकशास्त्रकथायाश्च कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३० ॥
तावत् पापानि देहेस्मिन् निवसन्ति तपोधनाः ।
यावत् न श्रूयते सम्यक् श्रीमद्‌भागवतं नरैः ॥ ३१ ॥
न गंगा न गया काशी पुष्करं न प्रयागकम् ।
शुकशास्त्रकथायाश्च फलेन समतां नयेत् ॥ ३२ ॥

यह जीव तभीतक अज्ञानवश इस संसारचक्रमें भटकता है, जबतक क्षणभरके लिये भी कानोंमें इस शुकशास्त्रकी कथा नहीं पड़ती ॥ २७ ॥ बहुत-से शास्त्र और पुराण सुननेसे क्या लाभ है, इससे तो व्यर्थका भ्रम बढ़ता है। मुक्ति देनेके लिये तो एकमात्र भागवतशास्त्र ही गरज रहा है ॥ २८ ॥ जिस घरमें नित्यप्रति श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता है और जो लोग उसमें रहते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ २९ ॥ हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ इस शुकशास्त्रकी कथाका सोलहवाँ अंश भी नहीं हो सकते ॥ ३० ॥ तपोधनो ! जबतक लोग अच्छी तरह श्रीमद्भागवतका श्रवण नहीं करते, तभीतक उनके शरीरमें पाप निवास करते हैं ॥ ३१ ॥ फलकी दृष्टिसे इस शुकशास्त्रकथाकी समता गङ्गा, गया, काशी, पुष्कर या प्रयागकोई तीर्थ भी नहीं कर सकता ॥ ३२ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तक कोड 1535 से 


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