||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला
अध्याय (पोस्ट.०६)
देवर्षि
नारदकी भक्तिसे भेंट
शौनक
उवाच –
लोकविग्रहमुक्तस्य
नारदस्यास्थिरस्य च ।
विधिश्रवे
कुतः प्रीतिः संयोगः कुत्र तैः सह ॥ २३ ॥
सूत
उवाच –
अत्र
ते कीर्तयिष्यामि भक्तियुक्तं कथानकम् ।
शुकेन
मम यत्प्रोक्तं रहः शिष्यं विचार्य च ॥ २४ ॥
एकदा
हि विशालायां चत्वार ऋषयोऽमलाः ।
सत्सङ्गार्थं
समायाता ददृशुस्तत्र नारदम् ॥ २५ ॥
कुमाराः
ऊचुः –
कथं
ब्रह्मन् दीनमुखं कुतश्चिन्तातुरो भवान् ।
त्वरितं
गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव ॥ २६ ॥
इदानीं
शून्यचित्तोऽसि गतवित्तो यथा जनः ।
तवेदं
मुक्तसङ्गस्य नोचितं वद कारणम् ॥ २७ ॥
नारद
उवाच –
अहं
तु पृथिवीं यातो ज्ञात्वा सर्वोत्तममिति ।
पुष्करं
च प्रयागं च काशीं गोदावरीं तथा ॥ २८ ॥
हरिक्षेत्रं
कुरुक्षेत्रं श्रीरङ्गं सेतुबन्धनम् ।
एवमादिषु
तीर्थेषु भ्रममाण इतस्ततः ॥ २९ ॥
नापश्यं
कुत्रचित् शर्म मनस्संतोषकारकम् ।
कलिनाधर्ममित्रेण
धरेयं बाधिताधुना ॥ ३० ॥
शौनकजीने
पूछा—सांसारिक प्रपञ्चसे मुक्त एवं विचरणशील नारदजी का सनकादि के साथ संयोग
कहाँ हुआ और विधि-विधानके श्रवणमें उनकी प्रीति कैसे हुई ? ॥
२३ ॥
सूतजीने
कहा—अब मैं तुम्हें वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो
श्रीशुकदेवजीने मुझे अपना अनन्य शिष्य जानकर एकान्तमें सुनाया था ॥ २४ ॥ एक दिन
विशालापुरीमें वे चारों निर्मल ऋषि सत्सङ्गके लिये आये। वहाँ उन्होंने नारदजीको
देखा ॥ २५ ॥
सनकादिने
पूछा—ब्रह्मन् ! आपका मुख उदास क्यों हो रहा है ? आप
चिन्तातुर कैसे हैं ? इतनी जल्दी-जल्दी आप कहाँ जा रहे हैं ?
और आपका आगमन कहाँसे हो रहा है ? ॥ २६ ॥ इस
समय तो आप उस पुरुषके समान व्याकुल जान पड़ते हैं जिसका सारा धन लुट गया हो;
आप-जैसे आसक्तिरहित पुरुषोंके लिये यह उचित नहीं है। इसका कारण
बताइये ॥ २७ ॥
नारदजीने
कहा—मैं सर्वोत्तम लोक समझकर पृथ्वीमें आया था। यहाँ पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी (नासिक),
हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरङ्ग
और सेतुबन्ध आदि कई तीर्थोंमें मैं इधर-उधर विचरता रहा; किन्तु
मुझे कहीं भी मनको संतोष देनेवाली शान्ति नहीं मिली। इस समय अधर्म के सहायक कलियुग
ने सारी पृथ्वी को पीडि़त कर रखा है ॥ २८—३० ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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