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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा
अध्याय (पोस्ट.०१)
भक्तिके
कष्टकी निवृत्ति
नारद
उवाच –
ज्ञानयज्ञं
करिष्यामि शुकशास्त्रकथोज्ज्वलम् ।
भक्तिर्ज्ञानविरागाणां
स्थापनार्थं प्रयत्नतः ॥ १ ॥
कुत्र
कार्यो मया यज्ञः स्थलं तद्वाच्यतामिह ।
महिमा
शुकशास्त्रस्य वक्तव्यो वेदपारगैः ॥ २ ॥
कियद्भिः
दिवसैः श्राव्या श्रीमद्भागवती कथा ।
को
विधिः तत्र कर्तव्यो ममेदं ब्रुवतामितः ॥ ३ ॥
कुमारा
ऊचुः –
श्रृणु
नारद वक्ष्यामो विनम्राय विवेकिने ।
गंगाद्वारसमीपे
तु तटं आनन्दनामकम् ॥ ४ ॥
नानाऋषिगणैर्जुष्टं
देवसिद्धनिषेवनम् ।
नानातरुलताकीर्णं
नवकोमलवालुकम् ॥ ५ ॥
रम्यं
एकान्तदेशस्थं हेमपद्मसुसौरभम् ।
यत्समीपस्थजीवानां
वैरं चेतसि न स्थितम् ॥ ६ ॥
ज्ञानयज्ञस्त्वया
तत्र कर्तव्यो हि अप्रयत्नतः ।
अपूर्वरसरूपा
च कथा तत्र भविष्यति ॥ ७ ॥
पुरःस्थं
निर्बलं चैव जराजीर्णकलेवरम् ।
तद्द्वयं
च पुरस्कृत्य भक्तिस्तत्रागमिष्यति ॥ ८ ॥
यत्र
भागवती वार्ता तत्र भक्त्यादिकं व्रजेत् ।
कथाशब्दं
समाकर्ण्य तत्त्रिकं तरुणायते ॥ ९ ॥
नारदजी
कहते हैं—अब मैं भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको स्थापित करनेके
लिये प्रयत्नपूर्वक श्रीशुकदेवजीके कहे हुए भागवतशास्त्रकी कथा द्वारा उज्ज्वल
ज्ञानयज्ञ करूँगा ॥ १ ॥ यह यज्ञ मुझे कहाँ करना चाहिये, आप
इसके लिये कोई स्थान बता दीजिये। आपलोग वेद के पारगामी हैं, इसलिये
मुझे इस शुकशास्त्र की महिमा सुनाइये ॥ २ ॥ यह भी बताइये कि श्रीमद्भागवत की कथा
कितने दिनों में सुनानी चाहिये और उसके सुनने की विधि क्या है ॥ ३ ॥
सनकादि
बोले—नारदजी ! आप बड़े विनीत और विवेकी हैं। सुनिये, हम
आपको ये सब बातें बताते हैं। हरिद्वार के पास आनन्द नामका एक घाट है ॥ ४ ॥ वहाँ
अनेकों ऋषि रहते हैं तथा देवता और सिद्धलोग भी उसका सेवन करते रहते हैं।
भाँति-भाँतिके वृक्ष और लताओं के कारण वह बड़ा सघन है और वहाँ बड़ी कोमल नवीन बालू
बिछी हुई है ॥ ५ ॥ वह घाट बड़ा ही सुरम्य और एकान्त प्रदेश में है, वहाँ हर समय सुनहले कमलों की सुगन्ध आया करती है। उसके आस-पास रहनेवाले
सिंह, हाथी आदि परस्पर-विरोधी जीवोंके चित्तोंमें भी वैरभाव
नहीं है ॥ ६ ॥ वहाँ आप बिना किसी विशेष प्रयत्नके ही ज्ञानयज्ञ आरम्भ कर दीजिये,
उस स्थानपर कथामें अपूर्व रसका उदय होगा ॥ ७ ॥ भक्ति भी अपनी
आँखोंके ही सामने निर्बल और जराजीर्ण अवस्थामें पड़े हुए ज्ञान और वैराग्यको साथ
लेकर वहाँ आ जायगी ॥ ८ ॥ क्योंकि जहाँ भी श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वहाँ ये भक्ति आदि अपने-आप पहुँच जाते हैं। वहाँ कानों में कथा के शब्द
पडऩे से ये तीनों तरुण हो जायँगे ॥ ९ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से

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