॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
जय-विजय
को सनकादि का शाप
मैत्रेय
उवाच ।
स
प्रहस्य महाबाहो भगवान् शब्दगोचरः ।
प्रत्याचष्टात्मभूर्देवान्
प्रीणन् रुचिरया गिरा ॥ ११ ॥
ब्रह्मोवाच
।
मानसा
मे सुता युष्मत् पूर्वजाः सनकादयः ।
चेरुर्विहायसा
लोकान् लोकेषु विगतस्पृहाः ॥ १२ ॥
त
एकदा भगवतो वैकुण्ठस्यामलात्मनः ।
ययुर्वैकुण्ठनिलयं
सर्वलोकनमस्कृतम् ॥ १३ ॥
वसन्ति
यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठमूर्तयः ।
येऽनिमित्तनिमित्तेन
धर्मेणाराधयन् हरिम् ॥ १४ ॥
यत्र
चाद्यः पुमानास्ते भगवान् शब्दगोचरः ।
सत्त्वं
विष्टभ्य विरजं स्वानां नो मृडयन् वृषः ॥ १५ ॥
यत्र
नैःश्रेयसं नाम वनं कामदुघैर्द्रुमैः ।
सर्वर्तुश्रीभिर्विभ्राजत्
कैवल्यमिव मूर्तिमत् ॥ १६ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—महाबाहो ! देवताओंकी प्रार्थना सुनकर भगवान् ब्रह्माजी हँसे और उन्हें अपनी
मधुर वाणीसे आनन्दित करते हुए कहने लगे ॥ ११ ॥
श्रीब्रह्माजी
ने कहा—देवताओ ! तुम्हारे पूर्वज, मेरे मानसपुत्र सनकादि
लोकों की आसक्ति त्यागकर समस्त लोकों में आकाशमार्ग से विचरा करते थे ॥ १२ ॥ एक
बार वे भगवान् विष्णु के शुद्ध-सत्त्वमय सब लोकोंके शिरोभागमें स्थित, वैकुण्ठधाममें जा पहुँचे ॥ १३ ॥ वहाँ सभी लोग विष्णुरूप होकर रहते हैं और
वह प्राप्त भी उन्हींको होता है, जो अन्य सब प्रकारकी
कामनाएँ छोडक़र केवल भगवच्चरण-शरणकी प्राप्तिके लिये ही अपने धर्मद्वारा उनकी
आराधना करते हैं ॥ १४ ॥ वहाँ वेदान्तप्रतिपाद्य धर्ममूर्ति श्रीआदिनारायण हम अपने
भक्तों को सुख देनेके लिये शुद्धसत्त्वमय स्वरूप धारणकर हर समय विराजमान रहते हैं
॥ १५ ॥ उस लोकमें नै:श्रेयस नामका एक वन है, जो मूर्तिमान्
कैवल्य-सा ही जान पड़ता है। वह सब प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करने वाले वृक्षों से
सुशोभित है, जो स्वयं हर समय छहों ऋतुओं की शोभा से सम्पन्न
रहते हैं ॥१६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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