॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट११)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
पानेन
ते देव कथासुधायाः
प्रवृद्धभक्त्या विशदाशया ये ।
वैराग्यसारं
प्रतिलभ्य बोधं
यथाञ्जसान् वीयुरकुण्ठधिष्ण्यम् ॥ ४५ ॥
तथापरे
चात्मसमाधियोग
बलेन जित्वा प्रकृतिं बलिष्ठाम् ।
त्वामेव
धीराः पुरुषं विशन्ति
तेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते ॥ ४६ ॥
देव
! आपके कथामृतका पान करनेसे उमड़ी हुई भक्तिके कारण जिनका अन्त:करण निर्मल हो गया
है,
वे लोग—वैराग्य ही जिसका सार है—ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त करके अनायास ही आपके वैकुण्ठधामको चले जाते हैं ॥
४५ ॥ दूसरे धीर पुरुष चित्तनिरोधरूप समाधिके बलसे आपकी बलवती मायाको जीतकर आपमें
ही लीन तो हो जाते हैं, पर उन्हें श्रम बहुत होता है;
किन्तु आपकी सेवाके मार्गमें कुछ भी कष्ट नहीं है ॥ ४६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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