॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - नवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
ब्रह्माजी
द्वारा भगवान्की स्तुति
ब्रह्मोवाच
–
दैवेन
ते हतधियो भवतः प्रसङ्गात् ।
सर्वाशुभोपशमनाद् विमुखेन्द्रिया ये ।
कुर्वन्ति
कामसुखलेशलवाय दीना ।
लोभाभिभूतमनसोऽकुशलानि शश्वत् ॥ ७ ॥
क्षुत्तृट्त्रधातुभिरिमा
मुहुरर्द्यमानाः ।
शीतोष्णवातवर्षैरितरेतराच्च ।
कामाग्निनाच्युत
रुषा च सुदुर्भरेण ।
सम्पश्यतो मन उरुक्रम सीदते मे ॥ ८ ॥
यावत्
पृथक्त्वमिदमात्मन इन्द्रियार्थ ।
मायाबलं भगवतो जन ईश पश्येत् ।
तावन्न
संसृतिरसौ प्रतिसङ्क्रमेत ।
व्यर्थापि दुःखनिवहं वहती क्रियार्था ॥ ९ ॥
जो
लोग सब प्रकारके अमङ्गलोंको नष्ट करनेवाले आपके श्रवण-कीर्तनादि प्रसङ्गोंसे
इन्द्रियोंको हटाकर लेशमात्र विषय-सुखके लिये दीन और मन-ही-मन लालायित होकर
निरन्तर दुष्कर्मों में लगे रहते हैं, उन बेचारोंकी
बुद्धि दैव ने हर ली है ॥ ७ ॥ अच्युत ! उरुक्रम ! इस प्रजा को भूख-प्यास, वात, पित्त, कफ, सर्दी, गर्मी, हवा और वर्षासे,
परस्पर एक-दूसरे से तथा कामाग्नि और दु:सह क्रोधसे बार-बार कष्ट
उठाते देखकर मेरा मन बड़ा खिन्न होता है ॥ ८ ॥ स्वामिन् ! जबतक मनुष्य इन्द्रिय और
विषयरूपी मायाके प्रभावसे आपसे अपनेको भिन्न देखता है, तबतक
उसके लिये इस संसारचक्रकी निवृत्ति नहीं होती। यद्यपि यह मिथ्या है, तथापि कर्मफल-भोगका क्षेत्र होनेके कारण उसे नाना प्रकारके दु:खोंमें
डालता रहता है ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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