॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
ब्रह्माजीकी
उत्पत्ति
क
एष योऽसौ अहमब्जपृष्ठ
एतत्कुतो वाब्जमनन्यदप्सु ।
अस्ति
ह्यधस्तादिह किञ्चनैतद्
अधिष्ठितं यत्र सता नु भाव्यम् ॥ १८ ॥
स
इत्थमुद्वीक्ष्य तदब्जनाल
नाडीभिरन्तर्जलमाविवेश ।
नार्वाग्गतस्तत्
खरनालनाल
नाभिं विचिन्वन् तदविन्दताजः ॥ १९ ॥
तमस्यपारे
विदुरात्मसर्गं
विचिन्वतोऽभूत् सुमहांस्त्रिणेमिः ।
यो
देहभाजां भयमीरयाणः
परिक्षिणोत्यायुरजस्य हेतिः ॥ २० ॥
ततो
निवृत्तोऽप्रतिलब्धकामः
स्वधिष्ण्यमासाद्य पुनः स देवः ।
शनैर्जितश्वासनिवृत्तचित्तो
न्यषीददारूढसमाधियोगः ॥ २१ ॥
वे
(आदिदेव ब्रह्माजी) सोचने लगे, ‘इस कमलकी कर्णिका पर बैठा हुआ
मैं कौन हूँ ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधार के जल में कहाँ
से उत्पन्न हो गया ? इसके नीचे अवश्य कोई ऐसी वस्तु होनी
चाहिये, जिसके आधारपर यह स्थित है’ ॥
१८ ॥ ऐसा सोचकर वे उस कमलकी नालके सूक्ष्म छिद्रोंमें होकर उस जलमें घुसे। किन्तु
उस नालके आधारको खोजते-खोजते नाभिदेशके समीप पहुँच जानेपर भी वे उसे पा न सके ॥ १९
॥ विदुरजी ! उस अपार अन्धकारमें अपने उत्पत्ति-स्थानको खोजते-खोजते ब्रह्माजीको
बहुत काल बीत गया। यह काल ही भगवान् का चक्र है, जो
प्राणियोंको भयभीत (करता हुआ उनकी आयुको क्षीण) करता रहता है ॥ २० ॥ अन्त में
विफलमनोरथ हो वे वहाँसे लौट आये और पुन: अपने आधारभूत कमलपर बैठकर धीरे-धीरे
प्राणवायुको जीतकर चित्तको नि:सङ्कल्प किया और समाधिमें स्थित हो गये ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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