॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
ब्रह्माजीकी
उत्पत्ति
पुंसां
स्वकामाय विविक्तमार्गैः
अभ्यर्चतां कामदुघाङ्घ्रिपद्मम् ।
प्रदर्शयन्तं
कृपया नखेन्दु
मयूखभिन्नाङ्गुलिचारुपत्रम् ॥ २६ ॥
मुखेन
लोकार्तिहरस्मितेन
परिस्फुरत् कुण्डलमण्डितेन ।
शोणायितेनाधरबिम्बभासा
प्रत्यर्हयन्तं सुनसेन सुभ्र्वा ॥ २७ ॥
कदम्बकिञ्जल्कपिशङ्गवाससा
स्वलङ्कृतं मेखलया नितम्बे ।
हारेण
चानन्तधनेन वत्स
श्रीवत्सवक्षःस्थलवल्लभेन ॥ २८ ॥
परार्ध्यकेयूरमणिप्रवेक
पर्यस्तदोर्दण्डसहस्रशाखम् ।
अव्यक्तमूलं
भुवनाङ्घ्रिपेन्द्र
महीन्द्रभोगैरधिवीतवल्शम् ॥ २९ ॥
अपनी-अपनी
अभिलाषा की पूर्ति के लिये भिन्न-भिन्न मार्गों से पूजा करनेवाले भक्तजनों को (पुरुषोत्तम
भगवान्) कृपापूर्वक अपने भक्तवाञ्छाकल्पतरु चरणकमलोंका दर्शन दे रहे हैं, जिनके सुन्दर अंगुलिदल नखचन्द्र की चन्द्रिका से अलग-अलग स्पष्ट चमकते
रहते हैं ॥ २६ ॥ सुन्दर नासिका, अनुग्रहवर्षी भौंहें,
कानोंमें झिलमिलाते हुए कुण्डलोंकी शोभा, बिम्बाफलके
समान लाल-लाल अधरोंकी कान्ति एवं लोकार्तिहारी मुसकानसे युक्त मुखार- विन्दके
द्वारा वे अपने उपासकोंका सम्मान—अभिनन्दन कर रहे हैं ॥ २७ ॥
वत्स ! उनके नितम्बदेश में कदम्बकुसुम की केसर के समान पीतवस्त्र और सुवर्णमयी
मेखला सुशोभित है तथा वक्ष:स्थल में अमूल्य हार और सुनहरी रेखावाले श्रीवत्सचिह्न की
अपूर्व शोभा हो रही है ॥ २८ ॥ वे अव्यक्तमूल चन्दनवृक्ष के समान हैं। महामूल्य
केयूर और उत्तम-उत्तम मणियोंसे सुशोभित उनके विशाल भुजदण्ड ही मानो उसकी सहस्रों शाखाएँ
हैं और चन्दन के वृक्षों में जैसे बड़े-बड़े साँप लिपटे रहते हैं, उसी प्रकार उनके कंधों को शेषजी के फणोंने लपेट रखा है ॥ २९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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